Book Title: Mahabandho Part 7
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 202
________________ १८? भुजगारबंधे फोसणाणुगमो जह० एग०, उक० संखेजसम०' । तित्थ० देवगदिभंगो । णवरि अवत्त० जह० एग०, उक्क० संखेंजसम० । सेसाणं चत्तारि पदा सव्वद्धा । सर्वदा है। तथा अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग देवगतिके समान है । इतनी विशेपता है कि अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । शेष प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिके तीन पदोंका बन्ध एकेन्द्रियादि जीव भी करते हैं, अतः इनके इन पदवाले जीवोंका काल सर्वदा कहा है । तथा इनका अवक्तव्यपद या तो उपशमश्रेणिसे उतरते समय होता है या उपशमश्रेणिमें इनकी बन्ध-व्युच्छित्तिके बाद मरकर देव होनेपर होता है और उपशमश्रोणिपर निरन्तर चढ़नेका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है, इसलिए यहाँ इनके अवक्तव्य पदवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । मात्र उक्त प्रकृतियोंमें प्रत्याख्यानावरणचतुष्क भी हैं सो इनके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल संयत जीवोंको नीचे लाकर प्राप्त करना चाहिए। आगे जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका सर्वदा काल कहा है सो कहीं तो उसका पूर्वोक्त कारण है और कहीं उसका किसी-न-किसीके निरन्तर बन्ध होना कारण है। इसलिए यह उस प्रकृतिके बन्ध स्वामीका विचार कर ले आना चाहिए । जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका काल उससे भिन्न है, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-पहले स्त्यानगृद्धि आदिके अवक्तव्यपदका काल एक जीवकी अपेक्षा एक समय बतला आये हैं । यदि नाना जीव इन प्रकृतियोंका अवक्तव्य करें तो एक समय तक तो कर ही सकते हैं, क्योंकि सासादनसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानकी राशि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । उसमेंसे कुछ जीव यदि मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों में आते हैं तो एक समय तक आकर अन्तर भी पड़ सकता है। इसलिए तो इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय कहा है और यदि पूर्वोक्त जीव निरन्तर मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोंको प्राप्त होवें तो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक होंगे। इसलिए इन प्रकृतियों के अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । प्रत्येक आयुका बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा नरकायु, मनुष्यायु और देवायुका बन्ध एक साथ यदि अधिकसे अधिक जीव करें तो असंख्यात ही कर सकते हैं। तथा भुजगार और अल्पतर पदका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सात समय है और अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। यह सब देखकर यहाँ उक्त तीन आयुओंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा शेष दो पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। वैक्रियिकपटकके अवस्थित और अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। आहारकद्विकका बन्ध संख्यात जीव ही करते हैं, इसलिए इनके अवस्थित और अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग देवगतिके समान है, यह स्पष्ट ही है । किन्तु इसका अवक्तव्यपद करनेवाले जीव संख्यात ही हो सकते हैं, अतः इसके उक्तपंदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। यहाँ शेष पदसे ये प्रकृतियाँ ली गई हैं-दो वेदनीय, सात नोकपाय, १. ता०प्रतौ 'ज० ए० संखेजसम०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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