Book Title: Mahabandho Part 7
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 147
________________ १२६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे १५५. देवेसु धुवियाणं भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० ए०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । एवं तित्थः । थीणगि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४इत्थि०-णवंस०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-भग-दुस्सर-अणादें-णीचा० भुज०अप्प-अवढि० जह० एग०,अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० ऍकत्तीसं० देसू० । दोवेदणी०चदुणोक०-थिरादितिण्णियुग. भुज०-अप्पद०-अवढि० णाणा भंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अंतो० । पुरिस०-समचदु०-वजरि०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदेंउच्चागो. तिण्णि पदा णाणा भंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० ऍक्कत्तीसं० देसू० । दोआउ० णिरयभंगो। तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु०-उजो० तिण्णि पदा० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अट्ठारससाग० सादि० । मणुस०-मणुसाणु० भुज०अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० णाणाभंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अट्ठारससाग० सादि० । एइंदि०-आदाव०-थावर० भुज-अप्प०-अवढि० जह. एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० बेसाग० सादि० । पंचिंदि०-ओरा०अंगो०-तस० वरणचतुष्कका भी अवक्तव्यपद सम्भव है, इसलिए उनके इस पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अलगसे कहा है । शेष कथन सुगम है। १५५. देवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसीप्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिको अपेक्षासे जानना चाहिए । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। दो वेदनीय, चार नोक स्थिर आदि तीन युगलके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका भङ्गज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग और त्रसके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान १. आ०प्रती 'अप्प० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं०-' इति पाठः । २ आ०प्रतौ ‘णीचा० अप्प०' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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