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पत्र ३
उस मार्ग को मात्र देखने से नहीं चलता, मार्ग का चारों तरफ से अवलोकन करना पड़ता है।
'जे तें जित्या रे तेणे हुं जितीओ'
जिनको तूने जीत लिए अजित! उन्होंने मुझे जीत लिया है। जिन राग-द्वेष तूने जीत लिए, उन राग-द्वेष ने मुझे जीत लिया है। मैं राग-द्वेष के परवश बन गया हूँ, राग-द्वेष की अधीनता है मेरी । अजित बनने का मार्ग है, राग-द्वेष, पर विजय पाने का !
पुरुष किस्युं मुज नाम ?
अजित, मैं पुरुष कैसे ? पुरुष में तो पौरुष होता है... मेरे में पौरुष ही कहाँ है ? यदि मेरे में पौरुष होता तो मैं राग-द्वेष पर विजय पा लेता...। मैं पुरुष कहलाने योग्य नहीं हूँ। तेरे मार्ग पर मैं चलूँ कैसे ? पुरुषार्थ के बिना राग-द्वेष पर विजय नहीं पाया जा सकता है। अजित, तू ही सच्चा पुरुष है... तूने आन्तर शत्रुओं का घोर पराभव कर विजय पा लिया है।
प्रभो, तेरे पास पहुँचने का मार्ग दिव्यदृष्टि से ही देखा जा सकता है । चर्मदृष्टि से तेरे मार्ग को देखने की चेष्टा कर तो मैं आज दिन तक संसार की चार गतियों में भटक रहा हूँ। चर्मदृष्टि से मार्ग खोजने जो-जो गये थे, भूले पड़ गये। अनेक मार्गो की भूल भूलैया में उलझ गये... तेरे मार्ग को वे देख नहीं पाये...।
चेतन, प्रभु को पाने का मार्ग देखने के लिए दुनियादारी की दृष्टि नहीं चलती है, उसके लिए तो चाहिए दिव्यदृष्टि ! सर्वज्ञ की दृष्टि चाहिए, जिनवचन की दृष्टि चाहिए।
पुरुष-परंपर अनुभव जोवतां अंधो अंध पुलाय !
आनन्दघनजी अब अपने मनोमंथन को अभिव्यक्त करते हैं। जब आज मनुष्य के पास केवलज्ञान की दिव्यदृष्टि नहीं है, मन:पर्ययज्ञान की या अवधिज्ञान की दिव्य आँखें नहीं हैं... तब इस समय परमात्मा के पास पहुँचने का मार्ग किसको पूछना ?
उस
यदि कोई कहता है : महापुरुषों की परम्परा चली आ रही है.... परंपरा में चल रहे किसी महापुरुष के अनुभव को पूछो ! उनके अनुभव को श्रद्धेय बनाकर मार्ग को खोजो !
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