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पत्र २२ भी झिझक [अखेदे] के बिना मान लो [कहो] | आत्मसत्ता का चिन्तन [विवरण] करते समय, सांख्य और योगदर्शन का कथन भी ध्यान में लेना चाहिए |
'ये तो मिथ्यादर्शन हैं, हम उन दर्शनों के माध्यम से आत्मसत्ता के विषय में कैसे सोचे?' ऐसा भय रखने की जरूरत नहीं है। ये दोनों दर्शन जिनेश्वर देव के दो पैर हैं!
जैनदर्शन जिस तत्त्व को आत्मा कहता है, सांख्यदर्शन उसको 'पुरुष' कहता है। जैनदर्शन जिस तत्त्व को 'कर्म' कहता है, सांख्यदर्शन उसको 'प्रकृति' कहता है । मात्र नाम का भेद है। नामभेद से तत्त्वभेद नहीं होता है।
योगदर्शन ने आत्मा को शुद्ध करने के लिये योग के आठ अंग बताये हैं। अशुद्ध आत्मा को शुद्ध करने की अच्छी प्रक्रिया बतायी गई है। भेद-अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी रे... लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुगमथी अवधारी रे...
सुगत [बौद्ध] भेदवादी है, मीमांसक [वेदान्ती] अभेदवादी है। ये दो [बौद्ध और वेदान्ती] जिनेश्वर के बड़े हाथ [कर] हैं। लोकालोक के लिये ये दो हाथ आलंबन हैं। किस प्रकार ये आलंबन हैं - यह ज्ञानी गुरुजनों से जानना चाहिए।
बौद्धदर्शन हर पदार्थ को विशेष मानता है और 'क्षणिक' मानता है। वेदान्तदर्शन हर पदार्थ को एक-सामान्य मानता है और 'नित्य' मानता है। ये दोनों दर्शन परस्पर विरोधी हैं, परंतु जब ये जिनेश्वर के अंग [हाथ] बन जाते हैं, तब विरोध दूर हो जाता है और समन्वय स्थापित होता है।
प्रत्येक द्रव्य में स्थिर अंश होता है और अस्थिर अंश होता है। लोकालोक में जो भी द्रव्य हैं, उन सभी द्रव्यों में उत्पत्ति, स्थिति और नाश-ये तीन तत्त्व होते ही हैं। द्रव्य में स्थिति है, पर्याय में उत्पत्ति और नाश हैं। द्रव्य से आत्मा नित्य है, पर्याय से आत्मा अनित्य है। जैनदर्शन की दृष्टि में बौद्ध और मीमांसक के मत प्रामाणिक सिद्ध होते हैं। जैनदर्शन संवादिता स्थापित करता है। लोकायतिक कुख जिनवरनी, अंश विचारी जो कीजे रे तत्त्वविचार सुधारसधारा, गुरुगम विण किम पीजे रे...?
'लोकायतिक' का अर्थ है, चार्वाकदर्शन । 'अंश विचारी' यानी नय दृष्टि से सोचा जाय तो चार्वाकदर्शन जिनेश्वर का पेट है! तत्त्वविचार रूप सुधारस की
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