Book Title: Magar Sacha Kaun Batave
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 229
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र २४ २१८ तीसरा प्रश्न : ज्ञेय के परिवर्तन के साथ ज्ञान का परिवर्तन होता रहता है। ज्ञान-ज्ञानी अभिन्न है, तो उनके परिवर्तन के साथ आत्मा भी बदलती रहेगी न? तो एक ही आत्मा में अनेकता आयेगी ? समाधान : नहीं, आत्मा वही की वही रहती है, उनका ज्ञानगुण [ज्ञानोपयोग] बदलने पर भी आत्मा नहीं बदलती है । दर्पण में प्रतिबिंब बदलता रहता है, दर्पण वही का वही रहता है। इसलिए एक आत्मा में अनेकता का दोष नहीं आयेगा । चौथा प्रश्न : आत्मा को सर्वज्ञ मानने पर, आत्मा का स्व- द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव पर - रूप बन जायेगा न ? समाधान: नहीं, आत्मा की स्वद्रव्य वगैरह चारों बातें वैसी की वैसी रहती हैं और ज्ञेय पदार्थों की भी स्व- द्रव्य वगैरह चारों बातें वैसी की वैसी रहती हैं । ज्ञेय और ज्ञाता का संबंध ही ऐसा है । आत्मा अपने केवलज्ञान से सकल ज्ञेय को जानती है, इसका अर्थ यह नहीं है कि आत्मा जिसको जाने उसका रूप धारण कर ले! अपना स्व-रूप खो दे! हम एक गधे को जानते हैं, क्या हम गधा बन जाते हैं? अथवा हम एक पहाड़ को जानते हैं, क्या हम पहाड़ बन जाते हैं? नहीं, हम जिस पदार्थ को जानते हैं, उस पदार्थ का हमारे ज्ञान में मात्र प्रतिबिंब गिरता है । चेतन, अब श्री आनन्दघनजी कैसे समाधान करते हैं, वह बताता हूँ । 'अगुरु - लघु' निज गुणने देखतां द्रव्य सकल देखंत, साधारण गुणनी साधर्म्यता, दर्पण जल ने दृष्टांत.... जिस प्रकार दर्पण का व पानी का, प्रतिबिंब ग्रहण करने का स्वाभाविक गुण है, वैसे केवलज्ञान का [सर्वज्ञता का] सकल द्रव्यों को देखने का स्वाभाविक गुण है। दर्पण, पानी और केवलज्ञान के इस गुण की साधर्म्यता - समानता है। दर्पण और पानी की मर्यादा है प्रतिबिंब ग्रहण करने की, जबकि केवलज्ञान अमर्यादित है। उसमें लोकालोक प्रतिबिंबित होते हैं । चेतन, केवलज्ञान ऐसा स्वतंत्र आत्मगुण है कि लोकालोक को वह दूसरे किसी भी गुण की सहायता के बिना जानता है । परंतु यहाँ इस गाथा में 'अगुरु - लघु निज गुणने देखता' ऐसा कहा गया है ! यानी आत्मा का जो अगुरु-लघु गुण है- पर्याय है, उसके माध्यम से आत्मा लोकालोक को देखती है। For Private And Personal Use Only

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