Book Title: Magar Sacha Kaun Batave
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 239
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२८ पत्र २५ में उनका 'अनुभव' भी जुड़ा हुआ होगा। वह अनुभव उन्होंने 'ध्यान-साधना' के माध्यम से प्राप्त किया होगा । इसलिये उन्होंने कहा है-'ध्यानविन्नाणे' | ध्यानविज्ञान के माध्यम से ही अपना निज] ध्रुवपद [आत्मा] जाना जा सकता है। जितनी जिसकी शक्ति! तदनुसार ध्यानविज्ञान को मनुष्य प्राप्त कर सकता है। __ आत्मा का वीर्य, आत्मा की सामर्थ्य-शक्ति, ध्यान से ही ज्ञात हो सकती है। उन्होंने ध्यान से जान लिया कि शक्ति का, वीर्य का मूल स्थान आत्मा है, शरीर नहीं। शारीरिक शक्ति का भी मूल स्रोत आत्मा है। चेतन, श्री आनन्दघनजी ने 'ध्यानविज्ञान' की महत्वपूर्ण बात कही है। अगम-अगोचर तत्त्वों के निर्णय में शास्त्र निर्णायक नहीं बनते, ध्यान निर्णायक बनता है। शास्त्र तो मात्र दिग्दर्शन करानेवाले होते हैं। ध्यान के विषय में जिनागमों में एवं महान पूर्वाचार्यों के लिखे हुए ग्रंथों में समुचित मार्गदर्शन मिलता है। ध्यान, ध्याता और ध्येय के विषय में बहुत ही स्पष्ट मार्गदर्शन मिलता है। ध्यान के मुख्य चार प्रकार बताये हैं : १. आर्तध्यान, २. रौद्रध्यान, ३. धर्मध्यान और ४. शुक्लध्यान | आर्तध्यान और रौद्रध्यान अशुभ हैं, त्याज्य हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान शुभ हैं, उपादेय हैं। ध्यान के विषय को लेकर शुभ-अशुभ के भेद किये गये हैं। यानी ध्येय के आधार पर ध्यान शुभ या अशुभ कहा जाता है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान का विषय शुभ है, इसलिये ये दो ध्यान उपादेय बताये गये हैं। धर्मध्यान के मुख्य चार विषय है-१. जिनेश्वरों की आज्ञा, २. कर्मों के अपाय, ३. कर्मों के विपाक और ४. चौदह राजलोक की स्थिति। इस ध्यान में अनित्यादि भावनाओं का चिंतन सहायक होता है। मैत्र्यादि भावनाओं की अनुप्रेक्षा उपयोगी बनती है। ध्यान की दूसरी प्रक्रिया है, कायोत्सर्ग की। कायोत्सर्ग में मन की स्थिरतारूपएकाग्रतारूप ध्यान का अभ्यास होता है। इस प्रकार ध्यान के अभ्यास में आगे बढ़ते हुए विशुद्ध आत्मा के ध्यान में लीनता प्राप्त करने की होती है। उस लीनता में आत्मा के अनंतज्ञानादि गुणों का वास्तविक ज्ञान होता है। 'अनन्त वीर्य' आत्मा में निहित है, यह बात स्पष्ट होती है। इतना ही नहीं, आत्मा का विशुद्ध स्वरूप प्रगट करने का आन्तरिक उल्लास जाग्रत होता है। आलंबन-साधन जे त्यागे, परपरिणतिने भागे रे, अक्षय दर्शन ज्ञान वैराग्ये, आनन्दघन प्रभु जागे रे.... For Private And Personal Use Only

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