Book Title: Magar Sacha Kaun Batave
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 236
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र २५ २२५ १. छद्मस्थ : अपूर्ण आत्मा, मोहाच्छादित आत्मा। २. अभिसंधिज : मोहयुक्त जीवात्मा के विशेष प्रयत्न से जो वीर्य प्रवर्तित होता है वह। ३. अनभिसंधिज : विशेष प्रयत्न के विना सहजता से जो स्थूल या सूक्ष्मप्रवृत्ति चलती रहती है, उस प्रवृत्ति में जो वीर्य प्रवर्तित होता है वह। __ ये दोनों प्रकार के वीर्य जो छद्मस्थ जीव में प्रवर्तित होते हैं, उसमें सहयोगी होती हैं लेश्यायें! लेश्यायें तो छद्मस्थ जीव को भी होती हैं और सर्वज्ञ-वीतराग आत्मा को भी होती हैं। हाँ, मुक्त आत्मायें लेश्यारहित होती हैं। - कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या अशुभ हैं। -- तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या शुभ हैं। - आत्मा के शुभाशुभ परिणाम को लेश्या कहते हैं। - विचारों को लेश्या कह सकते हैं। हर विचार का रंग होता है! अशुभ विचारों का रंग कृष्ण, नील अथवा कापोत होता है। शुभ विचारों का रंग लाल, पीला अथवा श्वेत होता है। इतनी बातें स्पष्ट होने पर दूसरी गाथा का अर्थ सरलता से समझा जायेगा। छउमत्थ वीर्य लेश्या संगे, अभिसंधिज मति अंगे रे, सूक्ष्म-स्थूल क्रिया ने रंगे, योगी थयो उमंगे रे.... छद्मस्थ जीव [छउमत्थ] का वीर्य [शक्ति] लेश्या सहित जीव की इरादातन [मति-अंगे] सूक्ष्म या स्थूल क्रिया में प्रवर्तित होता है। इसका अभिसंधिज वीर्य करते हैं। इस वीर्य से मन-वचन-काया के योग [प्रवृत्ति] उल्लास से होते रहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवात्मा जो मोहप्रेरित मन-वचन-काया की प्रवृत्ति करता है, उसमें जो शक्ति काम करती है, वह 'अभिसंधिज-वीर्य' कहलाता है। मन-वचन-काया की हर प्रवृत्ति के साथ 'लेश्या' जुड़ी हुई रहती है। आत्मा जो कर्मबंध करती है, उस कर्मबंध में भी 'वीर्य' कैसे कारण है, यह बात बताते हुए योगीराज फरमाते हैंअसंख्य प्रदेशे वीर्य असंख्ये, योग असंखित कंखे रे, पुद्गल-गण तेणे ले सुविशेषे, यथाशक्ति मति लेखे रे.... चेतन, प्रत्येक आत्मा अखंड होते हुए भी सर्वज्ञ की ज्ञानदृष्टि में असंख्य प्रदेशवाली है! और एक-एक आत्मप्रदेश में असंख्य-असंख्य वीर्यांश रहे हुए हैं! For Private And Personal Use Only

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