Book Title: Magar Sacha Kaun Batave
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 230
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१९ पत्र २४ आत्मा पर लगे हुए ‘गोत्रकर्म' के नाश से आत्मा में अगुरु-लघु गुण प्रगट होता है। इससे आत्मा-विषयक उच्च-नीच का खयाल मिट जाता है | यह गुण देहमुक्त आत्मा में प्रगट होता है। परंतु जो देहधारी केवलज्ञानी होते हैं, उनमें यह अगुरुलघु-गुण' प्रगट नहीं होता है। फिर भी केवलज्ञान में लोकालोक प्रतिबिंबित होते हैं। यानी सर्वज्ञ लोकालोक को जानते हैं, देखते हैं। इस दृष्टि से चेतन, मुझे यह प्रतिपादन समझ में नहीं आ रहा है'अगुरुलघु निज गुणने देखतां....।' इसलिये इस विषय को दूसरे विद्वानों के लिये छोड़ देता हूँ। यदि मुझे इसका स्पष्टीकरण मिल जायेगा तो मैं तुझे लिखूगा। उपसंहार करते हुए योगीराज श्री आनन्दघनजी कहते हैंश्री पारस जिन पारस रस समो, पण इहां पारस नाही, पूरण रसीयो हो निज गुण परसन्न, आनन्दघन मुज मांही.... श्री पार्श्वनाथ भगवंत पारसमणी [रस = मणि] समान हैं, परंतु वे पारसमणि नहीं हैं। वे तो पारसमणि से भी बढ़कर हैं। अपने आत्मगुणों में वे पूर्णरूपेण रममाण [रसिक] हैं! अतः आनन्दघन स्वरूप श्री पार्श्वनाथ मेरे भीतर ही हैं! ___ योगीराज ने श्री पार्श्वनाथ को 'पूरण रसीयो हो निज-गुण परसन्न' बताये। अपने आत्मगुणों में प्रसन्न और पूर्णरूपेण उन्हीं गुणों में रममाण जो हैं, वे ही पार्श्वनाथ हैं! ऐसे आनन्द स्वरूप पार्श्वनाथ मेरे भीतर ही हैं! ० आत्मगुणों में ही प्रसन्नता और ० आत्मगुणों में ही रमणता.... ये दो बातें आत्मा को पारसमणि से भी बढ़कर बना देती हैं। श्री पार्श्वनाथ भगवंत की दस भवों की यात्रा में, ये दो बातें पायी जाती हैं। इन दो बातों के सहारे वह आत्मा परमात्मा बन पायी थी। चेतन, हम अपना आत्मनिरिक्षण करें तो मालूम होगा कि अपन को आत्मगुणों में प्रसन्नता नहीं है, अपन को प्रसन्नता होती है, प्रिय विषयों के संयोग और संभोग में | अपनी रमणता भी आत्मगुणों में कहाँ है? रमणता है पाँच इन्द्रियों के विषय में। जब तक इसमें परिवर्तन नहीं होता है, तब तक अपने भीतर पार्श्वनाथ नहीं हो सकते हैं। For Private And Personal Use Only

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