Book Title: Magar Sacha Kaun Batave
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 210
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र २३ १९९ ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ० राजीमती कहती है : मैं आपको चाहती हूँ। मेरे हृदय में आपके प्रति पूर्ण प्रेम है, फिर मुक्ति-स्त्री से संबंध क्यों बाँधते हो? ० पशुओं का चित्कार सुनकर तेरे हृदय में दया का विचार आया, सही बात है, तूने उन पशुओं का विचार किया.... परन्तु तूने मनुष्य की - दया नहीं की.... तुझे मेरा विचार नहीं आया....।। ० हे नाथ! इस जगत में प्रेम तो सभी करते हैं, परन्तु प्रेम को निभानेवाले तो विरल ही होते हैं। आपने आठ-आठ भवों तक प्रेम किया, अब आप इस प्रकार द्वार पर आकर लौट गये, प्रेम को नहीं निभाया.... अच्छा नहीं किया। ० मुझे आप से कुछ नहीं चाहिए। मुझे तो आप ही चाहिए। आप मुझे मिल जाय तो ही मेरी इच्छा पूर्ण हो सकती है। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : २३ श्री नेमिनाथ स्तवना प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला। आनन्द!! जिनेश्वर भगवंतों की स्तवना में जिनेश्वरों के ही वचनों को, श्रीमद् आनन्दघनजी बता रहे हैं। यह भी एक विशिष्ट कला है। गेय काव्यों में तत्त्वज्ञान देना, सरल बात नहीं है। ऐसे ही, आनन्दघनजी के समकालीन महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी ने भी अपने गेय काव्यों में भरपूर तत्त्वज्ञान दिया है। श्री देवचन्द्रजी ने भी ऐसी काव्यरचनायें की हैं। पंडित वीरविजयजी ने तो कमाल कर दिया है, चौसठ प्रकारी पूजाओं की रचना करके! जो संस्कृत-प्राकृत भाषा नहीं जानते हैं, वैसे स्त्री-पुरुषों के लिये ये सारी काव्यरचनाएँ, विस्तृत और गहन तत्त्वज्ञान की गंगाएँ हैं। ज्ञानगंगा में स्नान करते ही रहो! श्री नेमिनाथ भगवान की यह स्तवना भगवत्प्रेम से भरी हुई है। For Private And Personal Use Only

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