Book Title: Magar Sacha Kaun Batave
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 215
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २०४ पत्र २३ विरल [ओर] ही होते हैं। प्रेम करके छोड़ जाने वालों पर [तेहशुं] किसी का जोर नहीं चलता है। किसी से जबरन प्रेम नहीं होता है । आपने आठ-आठ भवों तक प्रेम किया और निभाया, अब आप इस प्रकार द्वार पर आकर लौट गये... प्रेम को नहीं निभाया, खैर, आपसे मैं जबरन तो प्रेम नहीं कर सकती... । जो मनमां एहवं हतुं रे, निसपति करत न जाण... निसपति करीने छांडतां रे, माणस हुवे नुकसाण... Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपके मन में ऐसी ही बात [एहवुं] थी कि 'अब मैं राजीमती से प्रेम तोड़ दूँगा', तो मैं आपसे निस्बत [निसपति] - प्रेम नहीं करती, मेरे मन में तो था कि आप मेरे प्रेम को निभाओगे। इस प्रकार निस्बत - प्रेम करके छोड़ देनेवाले मनुष्य [माणस] को नुकसान होता है। इतनी सरल बात आपके ध्यान में क्यों नहीं आयी ? प्रेम किया है तो निभाना चाहिए । देतां दान संवत्सरी रे, सहु लहे वंछित - पोष, सेवक वंछित नवि लहे रे, ते सेवकनो दोष... हे नाथ! दुनिया के लोगों का दुःख दूर करने के लिये आपने संवत्सर - दान दिया । सब लोगों ने दान पाकर अपने इच्छित की पुष्टि [ पोष] पायी । अपनाअपना इच्छित पाकर सब संतुष्ट हुए । हे प्राणाधार, यह सेविका अपना इच्छित नहीं पा रही है...तो क्या मैं मेरा [सेवकनो ] ही दोष समझँ ? जैसे दूसरे लोगों को संतुष्ट किये, वैसे मुझे - आपकी चरण सेविका को भी संतुष्ट करनी चाहिए । मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए, मुझे तो आप ही चाहिए। आप मुझे मिल जायें... तो ही मेरी इच्छा पूर्ण हो सकती है । सखी कहे 'ए शामलो' रे, हुं कहुं लक्षण सेत, इण लक्षण साची सखी रे, आप विचारो हेत... हे नाथ, जब आप बरात लेकर यहाँ पधारे थे, उस समय मेरी सखी ने कहा था - ‘राजीमती, यह तेरा वर तो काला है! लक्षण अच्छे नहीं दिखते...! मैंने उसको कहा था - ‘नहीं, नहीं, मेरे पति श्याम हैं, इसलिए ही सुलक्षणवाले हैं।' परंतु जब आप नगर के द्वार से ही वापस लौट गये... तब मेरी सखी की बात सही सिद्ध हो गई। मेरे बालम! आप हेतुपूर्वक सोचना, आपको मेरी सखी की बात सही लगेगी । For Private And Personal Use Only

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