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पत्र ११
८५ परमात्मा का यह स्वरूपदर्शन अनेकान्त दृष्टि से कराया गया है- स्याद्वाददृष्टि से कराया गया है। एकान्त मान्यता इस प्रकार परमात्मा का स्वरूप-दर्शन नहीं करा सकती। एकान्त मान्यता तो कहती है- परमात्मा शक्तिरूप ही हैं! परमात्मा व्यक्तिरुप ही हैं, परमात्मा योगी ही हैं, मौनी ही हैं...! हर बात 'ही' से करती है, एकान्त मान्यता।
१. शक्तिरूप में सभी शुद्ध आत्मायें एक ही हैं। ज्ञान-दर्शनादि अनन्त गुण आत्मा की शक्ति है। परन्तु व्यक्तिरूप में प्रत्येक आत्मा अलग-अलग है। शक्तिरूप में अनन्त गुण होते हैं, परन्तु व्यक्तिरूप में गिनती हो सके उतने गुण ही होते हैं। इस प्रकार परमात्मा शक्तिरूप हैं और व्यक्तिरूप भी हैं।
२. त्रिभुवनपति का अर्थ है, त्रिभुवनपूज्य । परमात्मा त्रिभुवनपति होते हैं, फिर भी उनकी आत्मा में राग या द्वेष की कोई ग्रन्थि नहीं होती है। निर्ग्रन्थ आत्मा में त्रिभुवनपतित्व नहीं रह सकता है! फिर भी वे त्रिभुवनपूज्यता की दृष्टि से त्रिभुवनपति हैं! त्रिभुवनपति में निर्ग्रन्थता कैसे हो सकती है! फिर भी वे निर्ग्रन्थ हैं... चूँकि वे राग-द्वेषरहित होते हैं।
३. परमात्मा स्वगुणों की अपेक्षा से भोक्ता [भोगी] हैं और परद्रव्य के गुणों की अपेक्षा से योगी हैं। अथवा, तीर्थंकर तत्त्व की ऋद्धि को भोगते हैं, इस अपेक्षा से भोगी हैं, और आत्मभावों की संपूर्ण स्थिरता की अपेक्षा से योगी भी हैं!
४. परमात्मा समवसरण में बिराजकर, जो अभिलाप्य भाव हैं, उन भावों का कथन करते हैं, इस अपेक्षा से भगवान् वक्ता हैं और जो अनन्त अनभिलाप्य भाव हैं, उन भावों का कथन नहीं करते हैं, इस अपेक्षा से वे मौनी हैं। [चराचर विश्व में जो भी बातें हैं, वे दो प्रकार की हैं : अभिलाप्य यानी कथन हो सके वैसी, और अनभिलाप्य यानी कथन नहीं हो सके वैसी। अनभिलाप्य भावों का कथन सर्वज्ञ भी नहीं कर सकते हैं।]
५. सिद्ध अवस्था में परमात्मा के दो 'उपयोग' होते हैं : एक ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग । एक समय में एक ही उपयोग होता है। इस अपेक्षा से परमात्मा उपयोगवाले हैं और जब ज्ञानोपयोग होता है तब दर्शनोपयोग नहीं होता है, इस अपेक्षा से वे अनुपयोगी होते हैं। ___ अपेक्षाओं के माध्यम से, एक व्यक्ति में परस्पर विरुद्ध धर्म भी रह सकते हैं। परमात्मा में इस प्रकार गुणदर्शन करवाकर श्री आनन्दघनजी चमत्कृति का आनन्द पाते हैं!
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