Book Title: Magar Sacha Kaun Batave
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 167
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६ पत्र १९ धरम परम अरनाथनो किम जाणुं भगवंत रे स्वपर-समय समजावीए महिमावंत महंत रे.... धरम. १ शुद्धातम-अनुभव सदा स्व-समय एह विलास रे, पर-पडिछांयडी जे पड़े ते पर-समय निवास रे.... धरम. २ तारा नक्षत्र ग्रह चंदनी ज्योति दिनेश मोझार रे, दर्शन-ज्ञान-चरण थकी शक्ति निजातम धार रे.... धरम. ३ भारी पीलो चीकणो कनक अनेक तरंग रे, पर्यायदृष्टि न दीजिये एकज कनक अभंग रे.... धरम. ४ दरशन ज्ञान चरण थकी अलख सरुप अनेक रे, निर्विकल्प-रस पीजिए शुद्ध निरंजन एक रे.... धरम. ५ परमारथ-पंथ जे कहे, ते रंजे एक तंत रे, व्यवहारे लख जे रहे, तेहना भेद अनंत रे.... धरम. ६ व्यवहारे लख दोहिलो काँई न आवे हाथ रे, शुद्ध नय-थापना सेवतां नवि रहे दुविधा साथ.... धरम. ७ एक पखी लख प्रीतनी तुम साथे जगनाथ रे, कृपा करीने राखजो, चरणतले ग्रही हाथ रे.... धरम. ८ चक्री धरम-तीरथ तणो तीरथ-फल तत्तसार रे, तीरथ सेवे ते लहे आनन्दघन निरधार रे.... धरम. ९ 'हे महिमाशाली महान् भगवंत! आपका [अरनाथ का] श्रेष्ठ [परम] धर्म किस प्रकार मैं जान सकता हूँ? आपका वह श्रेष्ठ धर्म कि जो स्व-समयरूप और पर-समयरूप है, वह मुझे समझाने की कृपा करें।' चेतन, यहाँ श्री आनन्दघनजी क्रियात्मक धर्म की बात नहीं कर रहे हैं। भावनात्मक धर्म की बात भी नहीं कर रहै हैं। तूने कभी नहीं सुना होगा.... वैसे 'निश्चय-धर्म' की बात बता रहे हैं। आत्मधर्म की बात कर रहे हैं। इस धर्म में प्रवेश होने पर मन शान्त-प्रशान्त हो जाता है। 'स्वसमय' और 'परसमय' की परिभाषा करते हुए योगीराज गाते हैं For Private And Personal Use Only

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