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पत्र १४ - स्तवना को पूर्ण करते हुए वे महायोगी, अपने हृदय की एक कामना अभिव्यक्त करते हैं : एक अरज सेवक तणी रे, अवधारो जिन देव! कृपा करी मुज दीजिये रे, आनन्दघन-पद-सेव....
हे जिनेश्वरदेव! मेरी एक अरज है.... आप स्वीकार करें भगवंत! मेरे ऊपर कृपा करें और आप [आनन्दघन] के चरणों की सेवा करने का अवसर प्रदान करें, यानी मुझे आपके पास ले लें.... मैं आपकी सेवा करना चाहता हूँ।
'आनन्दघन' शब्द को गुणवाचक बनाकर उन्होंने परमात्मा को आनन्दघन कहा। अपना नाम भी उन्होंने इस प्रकार रख दिया।
चेतन, आनन्दघनजी को इस दुनिया में रहना पसंद नहीं था। वे परमात्मा की सृष्टि में बसना चाहते थे। सेवा भी परमात्मा की ही करना चाहते थे। परमात्मा से पाना कुछ नहीं था, परमात्मा को ही पाना चाहते थे। ___ काश.... अपना भी इस दुनिया से लगाव टूट जाय.... और परमात्मा से प्रीति बंध जाय....| अपन भी परमात्मा की मूर्ति को अमृतमय देखें! परमात्मा की मूर्ति के हर परमाणु से अमृत छलकता देखें! अपनी भी आँखें अमृतपूर्ण हो जायें....| चेतन, इस स्तवना को तू याद कर लेना। कभी-कभी मंदिर में मधुर स्वर में गाना।
कुशल रहना।
- प्रियदर्शन
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