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पत्र १७ है, वैसे उत्कृष्ट शुद्ध भावों की धारा बहती है.... इसको ‘सामर्थ्ययोग' कहते हैं। विशेष बात कवि कहते हैंदुष्टजन-संगति परिहरी, भजे सुगुरु-संतान रे.... जोग सामर्थ्य चित्त भाव जे, धरे मुगति-निदान रे....
चेतन, उझलना मत। योगीराज ने पहली ६ गाथाओं में शान्तियात्रा जो बतायी है, वह तीन 'अवंचकयोग' के माध्यम से बतायी है। सातवीं गाथा से जो शान्तियात्रा बता रहे हैं, वह इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग के माध्यम से बता रहे हैं। दोनों शान्तियात्रा का प्रारंभ उन्होंने आत्मतत्त्व की प्रतीति से ही बताया है। दोनों शान्तियात्रा में आलंबन सद्गुरु का ही लेने का कहा है। दोनों शान्तियात्रा में रागी-द्वेषी लोगों से दूर रहने की सावधानी दी है।
रागी-द्वेषी लोगों का संग-सहवास, मानसिक अशान्ति में बड़ा कारण है। इसलिए ऐसे लोगों का सहवास नहीं करना चाहिए।
दूसरी बात है सद्गुरु की उपासना की। जैसी-तैसी गुरुपरंपरा के साधुओं की सेवा [भजना] नहीं करनी चाहिए, उत्तम गुरुपरंपरा [सुगुरु-संतान] के साधुओं की सेवा करनी चाहिए | आलंबन लेना चाहिए । शास्त्रानुसारी क्रियायें करने के लिए प्रतिपल जागृत रहना चाहिए | इसलिए श्रमणजीवन ही जीना अनिवार्य होता है। गुरु के मार्गदर्शन में, अप्रमत्तभाव से शास्त्रानुसारी जीवन जीने से 'सामर्थ्ययोग' प्राप्त होता है, कि जो योगमुक्ति [मोक्ष] का प्रमुख कारण है। ___ शान्तियात्रा यहाँ पूर्ण होती है। इस अवस्था में मनुष्य स्थिर शान्ति पा लेता है। दुनिया का कोई भी निमित्त उसको अशान्त नहीं कर सकता है। मान-अपमान चित्त सम गणे, सम गणे कनक-पाषाण रे.... वंदक-निंदक सम गणे इस्यो होय, तू जाण रे.... सर्व जग-जंतु ने सम गण, गणे तृण-मणि भाव रे.... मुक्ति-संसार बेहु सम गणे, मुणे भवजलनिधि नाव रे....
सामर्थ्ययोगी महात्मा के आत्मभाव इतने शान्त-प्रशान्त हो जाते हैं कि कोई भी बाह्य निमित्त या आंतरिक निमित्त, उनके मन में अशान्ति पैदा नहीं कर सकता।
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