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पत्र ४
जब जीवात्मा चरमावर्त काल में प्रवेश करता है, तब उसमें तीन विशेष गुण प्रगट होते हैं-दुःखी जीवों के प्रति अत्यंत दया, गुणवान पुरुषों के प्रति अद्वेष
और उचित कर्तव्यों का पालन | इन गुणों का ज्यों-ज्यों विकास होता जाता है... त्यों-त्यों उसकी आत्मशक्ति विकसित होती जाती है और वह 'यथा प्रवृत्तिकरणअपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण' नाम का आंतर पुरुषार्थ कर लेता है।
चेतन, यथा प्रवृत्तिकरण वगैरह प्रक्रियायें अध्ययन के विषय हैं। मिथ्यात्व का नाश इन प्रक्रियाओं से होता है। संसार-परिभ्रमण जब सीमित होने का होता है तब मिथ्यात्व का दोष दूर होता है। दोष टले वली दृष्टि खिले भली रे, प्राप्ति प्रवचन-वाक्... ___ जब मिथ्यात्व का दोष दूर होता है तब पाँचवीं 'स्थिरा' दृष्टि खुलती है। योगमार्ग में आठ दृष्टि बतायी गई है-मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा | पाँचवीं दृष्टि सम्यग् श्रद्धा की है। मिथ्यात्व दूर होता है तब सम्यग् श्रद्धा का भाव पैदा होता है आत्मा में।
जब सम्यग श्रद्धा का भाव प्रगट होता है, तब सर्वज्ञ-वीतराग के वचन प्राप्त होते हैं | 'वह ही सच और निःशंक है जो वीतराग जिनेश्वर ने कहा है।' इस प्रकार जीवात्मा को प्रतीति होती है। जिन-वचनों की यथार्थता का बोध होता है।
इस आध्यात्मिक यात्रा में सदगुरु का संयोग प्राप्त होता है। मोक्षमार्ग पर चलने वाले पाँच महाव्रतों के धारक सद्गुरू का योग प्राप्त होने से -
१. पापों का नाश होता है, २. पापानुबंधी अकुशल कर्म कम होते हैं, ३. आध्यात्मिक ग्रंथों का श्रवण-मनन होता है,
४. नयवाद के माध्यम से, हेतुवाद की सहायता से धर्मग्रन्थों का परिशीलन होता है। कवि ने ये चार बातें एक ही गाथा में बतायी है। परिचय पातक-घातक साधु शुं रे, अ-कुशल-अपचय चेत, ग्रन्थ अध्यातम श्रवण-मनन करी रे, परिशीलन नय-हेत...
चेतन, मात्र बाह्य धर्मक्रियाओं के माध्यम से नहीं, परन्तु गुणों के माध्यम से आत्मा की आंतर विकास-यात्रा होती रहती है, तब साधु-पुरुषों का परिचय
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