________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७४
पत्र १० इम पूजा बहु भेद सुणीने,
सुखदायक शुभ करणी रे भविक-जीव करशे ते लेशे,
आनन्दघन-पद धरणी रे... सुविधि. परमात्मप्रेम से जिनका हृदय लबालब भरा हुआ था, वे योगीश्वर आनन्दघनजी, परमात्ममिलन के लिए परमात्ममंदिर में जाते हैं। हालाँकि वे तो महाव्रतधारी श्रमण थे, उनकी परमात्मभक्ति की, परमात्मपूजन की रीति गृहस्थों से भिन्न थी। परन्तु उन्होंने इस स्तवना में गृहस्थ भक्तजनों को परमात्मपूजन की पद्धत्ति बतायी है।
प्रातःकाल में निद्रा-त्याग कर, जमीन पर बैठकर स्वस्थ तन-मन से, सुविधिनाथ भगवंत का स्मरण करें, भाव से उनके चरणों में नमन करें और परमात्मपूजन की शुभ क्रिया करने को तत्पर बनें। अति घणो उलट अंग धरीने प्रह उठी पूजीजे रे...
अति महत्व की बात कह दी है कवि ने। परमात्मपूजन के लिए मंदिर जाना है, परन्तु शुष्क हृदय से, मूढ़ मन से नहीं जाना है। बहुत ही हर्ष हृदय में उभरना चाहिए... हृदय हर्ष से रोमांचित हो... शरीर में स्फूर्ति हो... और मंदिर की ओर आगे बढ़ो। द्रव्य-भाव शुचिभाव धरीने हरखे देहरे जईये रे...
द्रव्य भी शुचि-पवित्र चाहिए और मन भी शुचि-पवित्र चाहिए। दोनों पवित्र होने चाहिए। तीन भुवन के नाथ के चरणों में जाना है... शरीर स्वच्छ होना चाहिए, वस्त्र भी शुद्ध और स्वच्छ होने चाहिए। पूजन की सामग्री [सामान] भी शुद्ध और स्वच्छ होनी चाहिए | कुछ भी गंदा, अशुद्ध और घटिया किस्म का नहीं होना चाहिए। जहाँ प्रीति होती है, भक्ति होती है, वहाँ शुद्धि का, स्वच्छता का और श्रेष्ठता का खयाल आ ही जाता है। खयाल करना नहीं पड़ता है।
पवित्रता चाहिए और प्रसन्नता चाहिए मंदिर में जाने के लिए | गुजरात में मंदिर को 'देहरुं' 'देरासर' कहते हैं।
मंदिर के द्वार पर पहुँचते ही
For Private And Personal Use Only