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पत्र ४
२४ सेवा करने के लिए तुझे गुणात्मक योग्यता प्राप्त करनी होगी। तीन गुण होने चाहिए परमात्मा की पूजा-सेवा करने वाले मनुष्य में। 'सेवन-कारण पहेली भूमिका रे, अभय-अद्वेष-अखेद...'
परमात्मापूजक में गुणात्मक योग्यता होनी ही चाहिए। अभय, अद्वेष और अखेद-ये तीन गुण होने चाहिए | चाहे वह किसी भी परमात्म-स्वरूप की सेवापूजा करने वाला हो। आत्मविकास की यह प्राथमिक भूमिका है।
चेतन, आनंदघनजी अभय, अद्वेष और अखेद को समझाने के लिए भय, द्वेष और खेद की परिभाषा करते हैं! पहले भय की परिभाषा करते हुए कहते हैंभय चंचलता हो जे परिणामनी रे
चित्त के चंचल परिणाम यानी विचार, उसको भय कहते हैं। विचारों की चंचलता को भय कहते हैं। परिणाम कहो, अध्यवसाय कहो, मनोभाव कहो अथवा विचार कहो, एक ही है। जब ये चंचल बनते हैं, भय के भूत नाचने लगते हैं। भय का प्रारम्भ होता है, शंका से | मन में शंका-संशय पैदा होता है और मन चंचल बन जाता है। इष्ट के वियोग का भय! अनिष्ट के संयोग का भय! ये दो भय मनुष्य के भावप्राणों का नाश कर देते हैं | जब तक हम जीवद्वेषी और जड़प्रेमी बने रहेंगे, तब तक हम भयों से मुक्त नहीं हो सकते । तात्पर्य यह है कि प्रभुपूजक को जीवद्वेष और जड़प्रेम से मुक्ति पानी होगी। तभी वह 'अभय' हो सकता है। तभी उसके विचारों में स्थिरता आ सकती है। इष्टअनिष्ट की कल्पनाओं से मन मुक्त बनना चाहिए |
चेतन, अभय बनना होगा। परमात्मा के चरणों में पहुँचना है, तो अभय बनना ही होगा।
द्वेष की परिभाषा करते हुए कवि कहते हैं'द्वेष अरोचक-भाव'
द्वेष यानी अरूचि । मुख्य रुप से दो प्रकार की अरूचि यहाँ अभिप्रेत है। मोक्ष के प्रति अरूचि और जीवों के प्रति अरूचि । उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने भी कहा है-'योगनुं अंग अद्वेष छे पहेलुं ।'
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