________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५२
पत्र ७
आनन्द की ऐसी अनुभूति, आत्मा के ध्यान में होती है। अन्तरात्मा जब परमात्मा का निश्चल ध्यान करती है, तब वह दिव्य आनंद की अकथ्य अनुभूति करती है।
चेतन, अब युंजनकरण छोड़ना होगा, गुणकरण करना होगा। गुणों को प्रगट करने का प्रयत्न करना होगा। वह तब होगा जब तू अन्तरात्मा बना रहेगा। बहिरात्मदशा में तो जाना ही नहीं है। बहिरात्मदशा में 'युंजनकरण' ही होता है। अनन्त-अनन्त पापकर्म बंधते रहते हैं। अन्तरात्मदशा में 'गुणकरण' होता है।
आत्मा और परमात्मा का भेद मिटाने का उपाय मिल गया। अब उपाय करना है, अपन को। तू इस दिशा में पुरुषार्थशील बना रहे-यही मंगल कामना । तेरी कुशलता चाहता हूँ।
- प्रियदर्शन
For Private And Personal Use Only