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पत्र ८ ।। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । ० जो परमात्मा की भक्ति करता है, वह श्रेष्ठ सुख-संपत्ति पाता है और जो
परमात्मा की आज्ञाओं का पालन करता है, वह संसार सागर को तैर
जाता है। ० संसार और सिद्धि के बीच परमात्मा, पुल (Bridge) है। उस पुल पर
निर्भयता से चलना है। दोनों किनारे सुरक्षित हैं। ० गुणों की अनुभूति किये बिना, अनुभव-ज्ञान प्राप्त किये बिना आत्मा की
मुक्ति होनेवाली नहीं है। ।। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : ८
श्री सुपार्श्वनाथ स्तवना
प्रिय चेतन, धर्मलाभ! पत्र नहीं आया, तू स्वयं ही अचानक आ गया, श्री पद्मप्रभस्वामी की स्तवना को विशेष स्पष्टता से समझ कर चला गया....। तेरे जाने के बाद भी मेरा मन प्रसन्नता से हरा-भरा है।
आत्मा-परमात्मा का अन्तर ज्यों-ज्यों कम होता जाता है, घाती कर्मों की प्रबलता निर्बल बनती जाती है.... अन्तरात्मदशा में विशेष स्थिरता आती जाती है, त्यों-त्यों भीतर में आनन्द का महोदधि उछलता रहता है।
जब स्थिर..... शान्त और निर्मल आत्म-दर्पण में परमात्मा का प्रतिबिम्ब अवतरित होने लगता है, तब योगीश्वर आनन्दघनजी का मस्तक झुकता जाता है.... श्री सुपार्श्वनाथ भगवंत के अनेक रूप अवतरित होते हुए उनकी आँखें देखती रहती हैं। हृदय प्रेम और भक्ति से लबालब भरा हुआ है। समर्पण की भावना योगीश्वर को मुखरित कर देती है। उनके मुँह से गंभीर ध्वनि निकलती हैश्री सुपार्श्वजिन वंदिए!
और.... कितने नाम-रूपों से वे भगवंत की वंदना करते हैं!
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