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पत्र ४
२७ [जो वास्तव में सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र के आराधक हैं, वैसे साधु-पुरुषों का परिचय] पापों का नाशक बनता है। अकुशल पापकर्मों का भी नाश होता रहता है। साधु-पुरुषों के चरणों में विनय से बैठकर वह आत्मविशुद्धि में प्रेरक आध्यात्मिक ग्रन्थों का श्रवण करेगा, मनन करेगा। ज्यों-ज्यों ज्ञान का प्रकाश बढ़ता जायेगा, त्यों-त्यों वह सात नयों के माध्यम से तत्त्व-चिंतन करेगा, इससे उसका मन विसंवादों से मुक्त होगा।
इस प्रकार उत्तर-उत्तर आत्मविकास में पूर्व-पूर्व विकास की भूमिकायें कारण बनती हैं, इस बात में किसी को भी मतभेद नहीं होना चाहिए | यानी क्रमिक आत्मविकास का सिद्धांत ही सही सिद्धांत है | जो लोग इस सिद्धांत को नहीं मानते हैं, उनके प्रति आक्रोश व्यक्त करते हुए आनन्दघनजी कहते हैंपण कारण विण कारज साधीये रे, ए निज-मत उन्माद... मत का उन्माद!
चेतन, मतों का उन्माद जानना हो तो धर्मों का इतिहास तुझे पढ़ना होगा। राज्यसत्ताओं के उन्माद तो तूने पढ़े होंगे... धर्मक्षेत्र के मत-मतान्तरों के उन्माद भी पढ़ना । उन्मादों ने अनर्थ ही पैदा किए हैं। कार्य-कारण भाव की उपेक्षा कर, क्रमिक आत्मविकास के सिद्धांत को छोड़कर 'अक्रम-विज्ञान' की बातें करनेवाला मतोन्माद आज भी कुछ-कुछ जगह फैला हुआ है।
चेतन, दुनिया में ज्यादातर लोग 'मुग्ध'- सरल होते हैं, वे परमात्म-सेवा के मर्म को नहीं जानते। वे तो इतना ही समझते हैं कि मन्दिर में जाना... परमात्मा की मूर्ति की पूजा करना! हो गई सेवा! श्री आनन्दघनजी कहते हैंमुग्ध सुगम करी सेवन आदरे रे, सेवन अगम-अनूप...
परमात्मसेवा गूढ़ रहस्यवाली है, परमात्मसेवा सुन्दर है, अनुपम है,
परमात्म-सेवा का गूढ़ रहस्य और उसका अनुपम सौन्दर्य वह ही जान सकता है कि जो अभय बना हो, अद्वेषी बना हो, अखिन्न रहता हो। जिसका मिथ्यात्व-दोष दूर हुआ हो, जिसे पाँचवीं योगदृष्टि प्राप्त हो, जिसे जिनप्रवचन मिला हो, जिसे पापनाशक सद्गुरु-संयोग मिला हो और जिसने अध्यात्म के ग्रन्थों का श्रवण-मनन और परिशीलन किया हो।
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