Book Title: Lipi Vikas
Author(s): Rammurti Mehrotra
Publisher: Sahitya Ratna Bhandar

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Page 20
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास शनैः शनैः ध्वनि-बोधक चित्र में परिणत हो गया होगा, तदतन्तर वह आद्याक्षरोच्चारण सिद्धान्त ( Acrologie Principle) के अनुसार 'मू' अक्षर का द्योतक आक्षरिक चिन्ह बन गया होगा। और अन्त में केवल 'म' व्यञ्जन ध्वनि का द्योतक रह गया होगा। वर्ण-चिन्ह का क्रमशः, विकास मित्री हापरोग्लाइफिक (नं० ३१), हाएरेटिक (नं० ३२), फिनीशियन (नं०३३) तथा रोमन (M) संकेत चिन्हों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। प्रत्येक लिपि में कुछ न कुछ वर्णचिन्ह इस प्रकार अवश्य बने होंगे। ब्राह्मी में कुछ लिपि-चिन्ह ऐसे भी हैं जो देवताओं के सांकेतिक चिन्हों द्वारा बने हैं। (घ) वणं मूलक लिपि-तत्पश्चात शब्दों तथा अक्षर की समस्त ध्वनियों का विश्लेषण होने लगा और प्रत्येक ध्वनि के लिये लिपि-चिन्ह निर्मित हो गएः परन्तु सब लिपि चिन्ह वस्तुओं के अनुकरण पर नहीं बने, क्योंकि अधिकतर प्राचीन लिपि-चिन्ह ऐसे हैं जिनका उनसे उच्चरित होने वाली वस्तुओं की आकृति से कोई सादृश्य नहीं है, उदाहरणार्थ अप (जल) के श्राद्य वर्ण 'अ' का प्राचीन रूप सुमेर जल चिन्ह नं० १२ के समान है । अब प्रश्न यह है कि 'अ' जल चिन्ह के ही समान क्यों हुआ ? 'अ' ध्वनि का उससे क्या सम्बन्ध है ? इसका समाधान वस्तु वाचक अनुकरणात्मक चित्र लिपि से नहीं हो सकता । अनेक प्राचीन लिपि चिन्ह ऐसे हैं जिनका प्राकार उनके उच्चारण में भाषणावयवों द्वारा उत्पन्न होने वाली आकृति से मिलता-जुलता है, उदाहरणार्थ अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में दोनों नथने या तो फूल कर नं० ३४ को भाँति अथवा सिकुड़ कर नं० ३५ की भाँति हो जाते हैं। समय की मात्रा प्रकट करने के लिए हिन्दी में।, 5 तथा अँगरेजी में,-प्रयुक्त होते हैं और वैदिक साहित्य में स्वरित स्वर के ऊपर ।' और अनुदात्त के नीचे For Private And Personal Use Only

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