Book Title: Lipi Vikas
Author(s): Rammurti Mehrotra
Publisher: Sahitya Ratna Bhandar

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Page 75
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि विकास अनुनासिक व्यजनों के स्थान में अनुस्वार () लगाने की प्रवृत्ति चल पड़ी है ओर उसका उच्चारण प्रायः 'न' की भाँति होने लगा है यथा---गङ्गा, पञ्च, पण्डित, शम्भु आदि शब्द क्रमशः गंगा, पंच, पंडित, शंभु आदि की भाँति लिखे जाते हैं। अं अः तो केवल मात्रा मात्र हैं ही। अब रह गया केवल एक वर्ण 'ब' जो निरर्थक सा है । पहिले यह ख ध्वनि का द्योतक था, परन्तु आज कल 'श' ध्वनि का द्योतक है और इसके स्थान में श प्रयुक्त भी होने लगा है जैसे कोप, वेष, शीर्ष आशीष कृष्ण आदि के स्थान में कोरा वेश, शीश, किशन, आशीश आदि भी प्रयुक्त होते हैं । अतः जब इसका काम 'श' से चल सकता है, तो यह अनावश्यक है। ज्ञ का काम भी ग्य से चल सकता है। 'दर,' 'क्त' संयुक्ताक्षरों के प्रारम्भिक रूप दय क्त अथवा क्त आदि भी अनावश्यक रूप से प्रयुक्त होते हैं, परन्तु इनका प्रचार धीरे-धीरे कम हो रहा है। अतः ङः ब ऋप ज्ञ के अतिरिक्त शेष कोई वर्ण अनावश्यक नहीं है। इसके अतिरिक्त स्वरों का मात्रा स्वरूप प्रयुक्त होना हिन्दी की एक उपयोगिता ही नहीं, अपितु ऐसी विशेषता है जो अन्य किसी लिपि में नहीं पाई जाती । अतएव हिन्दी उर्दू तथा रोमन की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। इतना ही नहीं, हिन्दी वर्ण क्रम भी उ तथा रोमन की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक है । लिपि चिन्ह ध्वनियों के सूचक हैं. अतः सब से वैज्ञानिक वर्ण क्रम वह होगा जोध्वनियों के उच्चारण के अनुसार किया जायगा । अंगरेजी वर्णों में तो कोई क्रम है ही नहीं, उदु में ध्वनियों के अनुसार तो नहीं, हाँ वणों के रूपों के अनुसार कुछ क्रम 'अवश्य है, परन्तु वह भी अपूर्व है। रूप क्रमानुसार - को आदि के पास तथा -- 3-3 को इनके पश्चात, JI को हर For Private And Personal Use Only

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