Book Title: Lipi Vikas
Author(s): Rammurti Mehrotra
Publisher: Sahitya Ratna Bhandar

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ लिपि - विकास होती हैं। किसी-किसी वर्ण अथवा अंक में तो इतना परिवर्तन हो गया है कि पहचानना तक कठिन है और प्राचीन तथा आधुनिक रूपों में कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता जैसे इ उ ए गणन मयर आदि के प्राचीन ( क्रमशः नं० ४७, ८, 4, नं० ३०, ४,८,, नं० ४६, आदि ) तथा नवीन रूपों में । के उदाहरण से यह विषय और भी स्पष्ट हो जायगा । अ, विशेषतः बं, ञ, ध्वनि के उच्चारण में मुह अधिक फैलता है और उसका आकार लगभग == अथवा नं० ५० जैसा हो जाता है । अतः अ का आकार नं० ५० जैसा होना चाहिए था, परन्तु क्योंकि दीर्घ 'अ' के उच्चारण में भी निकटतया वैसा ही आकार बनता है, अतः ह्रस्व तथा दीर्घ का भेदक अथवा समय की मात्रा का द्योतक चिह्न अङ्कित करना पड़ा होगा क्योंकि दीर्घ आ के उच्चारण में ह्रस्व की अपेक्षा दूना अथवा दो मात्रा समय लगता है और समय की मात्रा का चिन्ह '|' था, अतः लिपि चिन्ह का निर्माण मुखाकृति नं० २० तथा मात्रा '' के संयोग से हुआ और के आकार प्रारम्भ में सम्भवतः कुछ कुछ नं० ५१, ५२, जैसे रहे होंगे, परन्तु क्योंकि अशोक कालीन ब्राह्मी से, जिस से कि हिन्दी का निष्क्रमण हुआ, पूर्व की लिपि अप्राप्य है, अतः आधुनिक का प्राचीनतम प्राप्य रूप नं० ५३ जैसा रूप तथा '' किस प्रकार हुआ ? उक्त प्रकार के परिवर्तनों के कारण निम्नलिखित हैं कारण : -- (१) लेखन सामग्री की विभिन्नता - प्राचीन काल में आजकल के से कागज-कलम न थे । कागज का आवि कार तो बहुत बाद में (तीसरी शता० पूर्व तथा पश्चात् के मध्य ) हुआ है । सर्व प्रथम चीन में रेशम का कागज बना, फिर साइलन ( Tsilon ) ने पत्नियों के रेशों से कागज बनाया । चंगेज खाँ के चीनी हमले से इसका प्रचार तातार में हो गया । भारत For Private And Personal Use Only

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