Book Title: Lipi Vikas
Author(s): Rammurti Mehrotra
Publisher: Sahitya Ratna Bhandar

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Page 40
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्राह्मी का विकास ___ए:-का दृसरा रूप समुद्रगुप्त के लेख तथा अन्य कई लेखों में प्राप्य है । तीसरे रूपान्तर का कारण सुन्दरता है । चौथा रूप यशोधर्मन के मंदसौर के लेख ( ५३२ ई.) तथा मारवाड़ के राजा ककक के समय के लेख में (८६१ ई०) उपलब्ध है। पाँचवा रूप राठौर राजा गोविन्दराज के लेख में (८०७ ई०), परमार राजा वाकपति के लेख में (६७४ ई.) और कलचुरी गजा कारीदेव के ताम्रपत्रों में ( १०४२ ई०) उपलब्ध है। क-का दूसरा रूप सिरबंदी लगाने की चेष्टा का फल है। तीसरा रूप उक्त राजा कर्णदेव के ताम्रपत्र में उपलब्ध है। चौथा म.प भी कई एक लेखों में प्राप्य हैं। ख:-का दूसरा म्प कुशन राजाओं के लेखों में तथा क्षत्रप मन्द्र दामन के गिरनार के लेख में ( २ री शता० ) उपलब्ध है। शेष रूपान्तर सुन्दरता के फल स्वरूप हुए हैं। गः-का दूसरा म्प सोडास तथा नहपान क्षत्रिय राजाओं के लेखों में पाया जाता है। शेप रूपान्तर सिरबंदी लगाने की चेष्टा के फल स्वरूप हुए हैं। घः-का दूसरा उक्त राजा यशोधर्मन के मंदसौर के लेख में उपलब्ध है। शेष रूपान्तर सिरबंदी लगाने तथा त्वरा लेखन के कारण हुए हैं। ड:-यह अशोक कालीन लेखों में नहीं मिलता। इसका पहिला रूप समुद्र गुप्त के लेख के एक संयुक्ताक्षर में पाया जाता है बाद में इसके नीचे की गोलाई बढ़ने के कारण इसका रूप 'डी के समान होने लगा । अतः भिन्नता लाने के लिए ८ वीं शता० में इसके अंत में एक बिंदी सी लगाई जाने लगी। चः--के पहिले के बाद के समस्त रूपान्तर सिर बंदी लगाने, सुन्दरता लाने तथा त्वरा लेखन के कारण हुए हैं । छः- का दूसरा म्प पहिले का रूपान्तर मात्र है। तीसरा For Private And Personal Use Only

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