Book Title: Lipi Vikas
Author(s): Rammurti Mehrotra
Publisher: Sahitya Ratna Bhandar

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Page 50
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्कों का विकास ३६ नक्षत्र आदि अपनी संख्याओं के अनुसार क्रमशः १४, १, १२,६ तथा २७ के. ज्योतिष संबंधी पक्ष, राशि, चरण आदि क्रमशः २, १२, ४ आदि के और साहित्य-शास्त्र सम्बन्धी व्याकरण, वेद, पुराण, महाकाव्य आदि क्रमशः ८, ४. १८, ५ आदि के, वाचक थे। सारांश यह है कि पदार्थों के भेद-प्रभेदों की संख्या शब्दांकों का आधार थी । कभी-कभी एक ही शब्द कई-कई संख्याओं का द्योतक भी होता था जैसे लोक ३ तथा १४ का सूचक था, क्योंकि लोक ३ और भुवन १४ हैं और लोक तथा भुवन पयायवाची है। इसी प्रकार रद तथा ३२ का, नरक ७ तथा ४० का सूचक था। इसके अतिरिक्त कभी-कभी एक ही शब्द अपने विभिन्न अर्थों के अनुसार विभिन्न संख्याओं का सूचक भी होता था जैसे 'रस' जिव्हा संबंधी तथा साहित्य संबंधी दो प्रकार के होते थे अतः 'रस' ६ तथा ६ दोनों संख्याओं का सूचक भी होता था, श्रलि का अर्थ 'कान' तथा वेद' दोनों है अतः यह २ तथा ४ दोनों का वाचक था, तथा 'युग' जोड़े के अर्थ में २ का और 'काल संबंधी युग' के अर्थ में ४ का सूचक था। इसी प्रकार कभी कभी शब्दों से उन वस्तुओं के अनुसार जिनसे वे संबद्ध होते थे अलग अलग संख्याओं का बोध भी होता था जैसे प्रङ्ग', यदि वेद के हैं, तो ६ का यदि राज्य के हैं तो ७ का और यदि योग के हैं तो ८. वाचक होगा। ___ इस प्रकार एक ही शब्द विविध संख्याओं का सूचक था। अतः शब्दांक लिपि में बड़ी अनिश्चितता थी और कभी-कभी निर्णय में बड़ी गड़बड़ हो जाती होगी। एक उदाहरण से यह विषय स्पष्ट हो जायगा । 'अष्ट लक्ष्मी' ग्रन्थ का रचना काल उसके कवि स य सुन्दर ने इस प्रकार दिया है । 'रस जलधि राग सोम' अथात् (१६४६), परंतु 'जलधि' के ४ तथा ७ का और 'रस' के ६ तथा का सूचक होने के कारण विद्वानों ने ठीक For Private And Personal Use Only

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