Book Title: Lipi Vikas
Author(s): Rammurti Mehrotra
Publisher: Sahitya Ratna Bhandar

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Page 46
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकों का विकास ३५ तीसरे से सुन्दरता के कारण बना है और कई एक लेखों में पाया जाता है । चः - यह 'क' तथा 'ष' के संयोग से बना है और संयुक्त वर्ण है । १० वीं शता० तक यह संयुक्ताक्षर के रूप में ही पाया जाता था। बाद में सुन्दरता के चक्कर में पड़ कर इसका वर्तमान रूप बन गया और यह एक स्वतन्त्र वर्ण ही समझा जाने लगा । इसका प्रथम रूप उक्त चत्रिय राजा सोडास के मथुरा के लेख में उपलब्ध है। शेष रूप इसी के रूपान्तर हैं जो वरालेखन, सिरबंदी लगाने तथा सुन्दरता लाने के कारण बने हैं । शः - यह भी 'क्ष' तथा 'त्र' की भाँति एक संयुक्ताक्षर है और 'ज' तथा 'न' के संयोग से निर्मित हुआ है । बाद में यह भी एक स्वतन्त्र वर्ण समझा जाने लगा । इसका प्रथम रूप उक्त रुद्रदामन के लेख में उपलब्ध है । शेष रूप इसी के रूपांतर है जो कि सुन्दरता, सिरबंदी तथा त्वरालेखन के कारण बने हैं । अंकों का विकास अंकों की उत्पत्ति तथा विकास का ओझा जी ने बहुत सुन्दर विवेचन किया है और उसकी उपस्थिति में कुछ कहना धृष्टता मात्र है, तदपि संक्षेप में यहाँ कुछ कह देना अनुचित न होगा । प्राचीन तथा चीन अंकों में बहुत भेद है । सब से बड़ा भेद तो यह है कि प्राचीन काल में शून्य का चिह्न नहीं था, केवल १ से ६ तक अंक चिह्न थे; दूसरे जिस प्रकार आजकल समस्त सख्याएँ १ से १० तक के अंकों के आधार पर लिखी जाती हैं उस प्रकार प्राचीन काल में संख्याओं का आधार १ से ६ तक के अंक न थे; नोट:- सरबंदी बहुधा वर्णों में उनके दूसरे अथवा तीसरे रूप में लगी हैं। For Private And Personal Use Only

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