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विश्व की ज्ञान-मनीषा को आगे बढ़ाने में यदि जैन धर्म की भूमिका उल्लेखनीय रही है तो जैन धर्म की ज्ञान-सम्पदा को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाने में खरतरगच्छ की भूमिका रही है। जैन धर्म में गच्छ, गण, समुदाय के नाम पर अनेक परम्पराएँ विकसित हुई हैं, जिनमें खरतरगच्छ की ओजस्विता और तेजस्विता अपने आप में अनुपम और अतुलनीय रही है। खरतरगच्द का पूरा एक हजार वर्ष का इतिहास है। इसके पास विद्वान संतों, ज्ञानी मनीषियों और परम प्रभावक आचार्यों की एक लम्बी श्रृंखला है। जरा कल्पना कीजिये कि कोई साहित्य परम्परा यदि दो-तीन पीढ़ियाँ देखे तो भी वह सृजन के नये आयाम स्थापित कर सकती है, वहाँ यदि किसी परम्परा ने पूरे एक हजार वर्ष माँ सरस्वती की सेवा में समर्पित किए हों उस परम्परा के पास साहित्य और ज्ञान का खजाना कितना विशाल होगा?
खरतरगच्छ की वर्तमान पीढ़ी ने जितना ध्यान अपने गुरुदेवों की भक्ति और प्रतिष्ठा पर दिया यदि उतना ही ध्यान इसके प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य के प्रकाशन और प्रसारण पर दिया जाता तो न केवल धर्म और मानव जाति की महान सेवा होती वरन् इस गच्छ की जाहोजलाली में भी अभिवृद्धि होती।
खरतरगच्छ मात्र गच्छ नहीं है वरन् स्वयं की जीवन-शैली की शुद्धता का संदेश है। आचार्य श्री जिनेश्वरसूरिजी से प्रारम्भ हुई इस निर्मल धारा ने उतना ही विशाल पैमाना उपलब्ध किया जितना कि गंगोत्री से निकलने वाली गंगा की पतली-सी धारा गंगा का रूप लेकर गंगा सागर बनी है। इसके प्रभावक आचार्यों की यदि चर्चा की जाए तो सूची लम्बी हो जाएगी, पर यदि हम उनमें से कुछेक का उल्लेख करना चाहें तो सर्वप्रथम उल्लेख करेंगे आचार्य जिनदत्तसूरिजी महाराज का जिन्होंने करीब डेढ़ लाख लोगों को जैन धर्म की दीक्षा देते हुए उन्हें अहिंसक और व्यसनमुक्त जीवन जीने को प्रतिज्ञाबद्ध किया। कुशल गुरुदेव का नाम तो आज भी लोगों के घट-घट में व्याप्त है जिनके अतिशय योगबल के चलते उस समय भी डूबती नौकाएं पार लग गयी थी और आज भी वही कलियुग में कल्पतरु के समान हाथ के हुजूर और संकटमोचक कहलाते हैं। यह इस गच्छ का ही साहस था कि इसने मणिधारी जिनचन्द्रसरि जी म० को मात्र ८ वर्ष की उम्र में आचार्य पद देकर योग्यताओं के उपयोग का द्वार खोला। चौथे दादा के नाम से मशहूर जिनचन्द्रसूरिजी महाराज इतने अधिक प्रभावी थे कि सम्राट अकबर जैसों पर भी उनका जबरदस्त दबदबा था।
यदि हम ज्ञान और साहित्य के क्षेत्र की चर्चा करें तो खरतरगच्छ ने विश्व साहित्य को इतना कुछ दिया है कि आने वाली सदियाँ उससे उपकृत रहेंगी। यदि हम खरतरगच्छ के साहित्य के पुरोधा के रूप में किसी का नाम उल्लेखित करना चाहें तो वे आचार्य अभयदेवसूरिजी हुए जिन्होंने जैन धर्म के मूल आगमों और शास्त्रों की टीका और विवेचना करके युगों-युगों के लिए प्रकाश स्तम्भ का काम किया। वर्तमान में आगम शास्त्रों पर जितने भी अनुवाद और विवेचन प्रकाशित हुए हैं उन सब पर आचार्य अभयदेवसूरिजी की टीकाओं का जबरदस्त प्रभाव रहा है। यूं तो खरतरगच्छ में अनेकानेक आचार्य और विद्वान साहित्यकार हुए, परन्तु महोपाध्याय समयसुन्दरजी महाराज ने अपना सम्पूर्ण जीवन ही एक प्रकार से साहित्य को समर्पित किया। उनके गीत और रचनाएं आज खरतरगच्छ की
भूमिका
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