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* प्राकथन )
श्रमण भगवान् महावीर के सकल कर्म विमुक्त होने पर, सिद्धिगति में अवस्थिति/निर्वाण होने पर सहज भाव से जिज्ञासा उत्पन्न हुई। समस्त संघ के आधारभूत परम उपकारी वीरप्रभु के सिद्ध होने पर इस भरत क्षेत्र में कौन उपकार करेगा? हमारे जैसे जीवों का कौन उद्धार करेगा? इसका प्रामाणिक समाधान करते हुए आचार्य कल्प, अध्यात्म योगी, द्रव्यानुयोग के विशिष्ट ज्ञानी उपाध्याय पदधारक श्री देवचन्द्रजी महाराज निर्वाण कल्याणक स्तवन में कहते हैं:
मार गदेशक मोक्षनो रे, के वलज्ञान निधान । भाव दयासागर प्रभु रे, पर उपकारी प्रधानो रे॥ १॥ वीर प्रभु सिद्ध थया, संघ सकल आधारो रे । हिव इण भरतमां, कुणउ करशे उपगारो रे? वीर० ॥ २॥
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इण काले सवि जीवने रे, आगमथी आनन्द ॥ ध्यावो सेवो भविजना रे, जिनपडिमा सुखकंदो रे॥ वीर० ॥ ८॥ गणधर आचारिज सुनि रे, सहुने इण पर सिद्ध॥
भव भव आगम संगथी रे, देवचन्द्र पद लीधो रे॥ वीर० ॥ ९॥ योगिराज का कथन है कि इस दुःषम काल में भव्यजनों के लिए आगम और जिनप्रतिमा ही जीवन के श्रेष्ठतम आधार हैं। श्रुत
भगवान् महावीर ने अर्थ रूप में अपनी देशना को प्ररूपित किया और गणधरों ने सूत्रित कर द्वादशांगी/गणिपिटक की रचना की। द्वादशांगी के अन्तर्गत ही चर्तुदश पूर्वो का समावेश होता है अतः समस्त ज्ञान और विज्ञान का अधिष्ठाता द्वादशांगी ही कहलाई। यह द्वादशांगी 'सुअ' शब्द से प्रख्यात थी। सुअ शब्द का संस्कृत रूपान्तरण 'श्रुत' होता है। पूर्ववर्ती काल में पूर्वधर आचार्यों ने द्वादशांगी रूप ' श्रुत' को 'श्रुत देवी' के रूप में परिकल्पित कर प्रतिपादित कर दिया।
सुवर्णशालिनी देयाद्, द्वादशांगी-जिनोद्भवा।
श्रुतदेवी सदा मह्य-मशेषश्रुतसम्पदाम्। शनैः-शनैः यही श्रुतदेवी 'सरस्वती' के रूप में जैनों के लिए उपास्य बन गई। पूर्वाचार्यों ने श्रुतदेवी/सरस्वती देवी के रूप में ही स्वतन्त्र स्तोत्रों की रचना कर इस देवी का माहात्म्य वर्धित कर दिया।
प्राक्कथन
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