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की अधिकांश रचनाएं संस्कृत या संस्कृतनिष्ठ होती हैं। महाकवि जयदेव के गीतगोविन्द के अनुसरण पर इन्होंने भी चतुर्विंशति जिनेन्द्र स्तवनानि की रचना की है। प्रत्येक स्तवन संस्कृत भाषा में होते हुए भी लोकगीत ध्वनि के आधार पर गेय रूप में लिखा गया।
प्रत्येक तीर्थंकर की अलग-अलग स्तवना भी की जाती है साथ ही तीर्थों के अधिष्ठाता होने के कारण उस तीर्थंकर की प्रमुखता से स्तवना की जाती है जैसे आबू तीर्थ स्थित आबू भास, बीकानेर स्थित चौवीसटा अर्थात् चौवीस जिन स्तुति, पालनपुर स्थित चन्द्रप्रभस्वामी, पाटण स्थित शान्तिनाथ भगवान्, गिरनार तीर्थ स्थित नेमिनाथ भगवान्, जेसलमेर-फलवर्द्धि, लौद्रवपुर, स्तम्भन, नाकोड़ा, गौड़ी, भाभा, शेरीसा, अजाहरा, नारङ्गा, वाडी, अमीझरा, अंतरिक्ष, वरकाणा, नागोर, इत्यादि से सम्बन्धित पार्श्वनाथ एवं पावापुर स्थित पावापुरी महावीर आदि को प्रमुखता देते हुए अपने भावों को उजागर किया जाता है। चार शाश्वत तीर्थंकरों का भी स्मरण कर उनको नमन किया जाता है। गौतमादि ११ गणधरों, बाहुबली, धन्ना, प्रसन्नचन्द्र आदि महापुरुष, द्रोपदी आदि महासतियाँ, चारों दादागुरुदेव, तत्कालीन संघ के पट्टधर आचार्य आदि की गेय रूप से स्तवना ही गीत, स्तुति और गहुंली कहलाती है। भगवान् नेमिनाथ और राजुल के प्रसंग को लेकर बारहमासा, फाग इत्यादि प्राप्त होते हैं। स्थूलिभद्र के भी बारहमासा प्राप्त होते है। इनके साथ ही कुछ औपदेशिक पद क्रोधादि निवारण, दानशील आदि धारण और बारहभावना इत्यादि के गीत भी प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। ये गीत
और स्तवन रचनाकार की सुविधानुसार अष्टक रूप में भी होते हैं और तीन से लेकर अधिक गाथाओं के भी होते हैं। चारों दादा गुरूदेवों के अष्टक, गीत, स्तवन, निसाणी, भास आदि साहित्य ७०० से अधिक प्राप्त होते है जिनका संकलन दादागुरु भजनावली में किया गया है।
स्तवन गीतकारों में प्रमुखता से महोपाध्याय समयसुन्दर, महिमसमुद्र आचार्य बनने पर जिनसमुद्रसूरि, महाकवि जिनहर्षगणि, धर्मवर्द्धन, जिनराजसूरि, ज्ञानसार आदि के नाम लिए जा सकते हैं। समयसुन्दरजी के लिए तो यह प्रसिद्ध ही है:- महाराणा कुम्भारा भींतड़ा और समयसुन्दररा गीतड़ा। आज भी समयसुन्दर के ५०० से अधिक लघु कृतियाँ प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार बेगड़ गच्छीय महिमहर्ष/जिनसमुद्रसूरि की गीत साहित्य की दृष्टि से समयसुन्दर जी के साथ तुलना की जा सकती है। इनके भी ५०० के लगभग लघु कृतियाँ प्राप्त होती हैं।
बत्तीसी छत्तीसी आदि - बत्तीसी, छत्तीसी, बावनी, बहुत्तरी, आदि में अधिकांशतः रचनाएं उपदेश परक, आत्मानुभूति परक, योगध्यान परक, धर्मप्रेरक, स्वानुभूति को जागृत करने वाली होती हैं। कई छत्तीसियाँ कर्म, शील, दान और आलोयणा परक भी होती है। आनन्दघनजी, ज्ञानसारजी, और चिदानन्दजी के पद रहस्यवाद से परिपूरित होते है।
___ इस प्रकार हम देखते है कि आचार्य वर्द्धमानसूरि और जिनेश्वरसूरि ने प्रकर्ष वेग के साथ जिस ज्ञानसत्र को ११वीं शताब्दी में प्रारम्भ किया था उसको परवर्ती आचार्यों ने २०वीं
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