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शताब्दी तक अविच्छिन्न रूप से निरन्तर प्रगतिमान रखा और उस ज्ञानसत्र को पल्लवितपुष्पित करते हुए वट वृक्ष का रूप दिया । आगम साहित्य से लेकर गीत साहित्य तक खरतरगच्छीय आचार्यों, उपाध्यायों, गणियों और मुनियों ने जो साहित्य निर्माण कर माँ सरस्वती के भण्डार को समृद्ध किया है वह अनुपमेय ही नहीं असाधारण भी है। संयम और तपश्चरण के साथ भिन्न-भिन्न विषयों के शास्त्रों के अध्ययन और ज्ञानार्जन का कार्य भी इन मुनिजनों ने बड़े प्रेम और उत्साह साथ व्यवस्थित रूप में किया। सभी उपादेय विषयों के नवीन-नवीन ग्रन्थों का निर्माण भी किया और पुरातन ग्रन्थों पर टीकाएं आदि भी लिखीं। अध्ययन और अध्यापन और साहित्य निर्माण के कार्य में उपयोगी पुरातन जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त व्याकरण, न्याय, अलङ्कार, काव्य, कोष, छन्द आदि विविध विषयों के महत्वपूर्ण ग्रन्थों पर अपनी कलम भी चलाई। यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि समग्र श्वेताम्बर समाज में खरतरगच्छीय आचार्यों द्वारा निर्मित साहित्य अगाध समुद्र के समान विशाल और समस्त जैनों के सिरमोर होने का गौरव धारण करता है ।
मेरे इन विचारों की पुष्टि पुरातत्त्वाचार्य पद्मश्री जिनविजयजी भी कथाकोष प्रकरण (प्रस्तावना पृष्ठ-५) इस खरतरगच्छ में उसके (जिनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि a) बाद अनेक बड़े-बड़े प्रभावशाली आचार्य, बड़े-बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, बड़े-बड़े प्रतिभाशाली पण्डित मुनि और बड़े-बड़े मांत्रिक, तांत्रिक, ज्योतिर्विद्, वैद्यकविशारद आदि कर्मठ यतिजन हुए जिन्होंने अपने समाजकी उन्नति, प्रगति और प्रतिष्ठा के बढाने में बड़ा भारी योग दिया। सामाजिक और सांप्रदायिक उत्कर्षकी प्रवृत्तिके सिवा, खरतर गच्छानुयायी विद्वानोंने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं देश्य भाषा के साहित्य को भी समृद्ध करने में असाधारण उद्यम किया और इसके फलस्वरूप आज हमें भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विविध विषयों का निरूपण करने वाली छोटी-बड़ी सैकड़ों-हजारों ग्रन्थकृतियां जैन भण्डारों में उपलब्ध हो रही हैं। खरतरगच्छीय विद्वानों की की हुई यह साहित्योपासना न केवल जैन धर्मकी ही दृष्टि से महत्त्व वाली है, अपितु समुच्चय भारतीय संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है।
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साहित्य- संरक्षण
खरतरगच्छाचार्यों ने जो नवीन नवीन साहित्य निर्माण किया दूसरों के ग्रन्थों पर टीकाएं लिखी और इतः पूर्व समस्त जैनाचार्यों रचित साहित्य, अन्य दार्शनिकों का साहित्य भी जैन भण्डारों में सुरक्षित रख रहे थे उन भण्डारों को विधर्मी, आक्रान्ता शासकों ने तहस-नहस कर डाला और जैन भण्डारों को जला-जला कर नष्ट कर डाला। यही कारण है देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के समय का साहित्य हमें प्राप्त नहीं होता है। उस समय जिनभद्रसूरि आदि खरतरगच्छाचार्यों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार उन-उन शासकों से सम्पर्क में आकर उनके धार्मिक जूनून को कम करने का प्रयत्न
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