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सुनकर द्रुतगति से अपने विशिष्ट अनुचरों को भेजकर उनने यह समस्या पूर्ति करवाई। महाराजा नरवर्म सन्तुष्ट हुए। अष्टसप्तति के अनुसार महाराजा नरवर्म चित्तोड़ के भी अधिपति थे। जिनवल्लभसूरि द्वारा नवनिर्मापित विधि चैत्यों में आकर भक्ति पूर्वक वन्दना की ओर भेंट भी की। नरवर्म जिनवल्लभसूरि के प्रमुख भक्त थे।
__ अजमेर के अर्णोराज चौहान - युगप्रधान जिनदत्तसूरि के परम भक्त थे और उनके उपदेशों से प्रभावित होकर जिनमंदिर व उपाश्रयों के लिए यथेच्छ भूमि प्रदान की थी।
त्रिभुवनगिरि का राजा कुमारपाल - युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरिजी ने त्रिभुवनगिरि (तिहुणगढ़) पधार कर वहां के महाराजा कुमारपाल को प्रतिबोध दिया। श्रीशान्तिनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा की और उधर के प्रदेश में प्रचुरता के साथ अपने शिष्यों को विहार कराया।
तेरहवीं शताब्दी में चित्रित काष्ठपट्टिका में जिनदत्तसूरि के साथ महाराजा कुमारपाल को भी दिखाया गया है।
दिल्ली के महाराजा मदनपाल - सं० १२२३ में श्री जिनदत्तसूरिजी के शिष्य मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरिजी दिल्ली के निकटवर्ती ग्राम में पधारे। जिनदत्तसूरि द्वारा निषेधाज्ञा होने पर भी महाराजा के विशेष अनुरोध से जिनचन्द्रसूरि दिल्ली पधारे। बड़े भारी समारोह से उनका प्रवेशोत्सव हुआ। महाराजा मदनपाल (अनङ्गपाल) स्वयं सूरिजी का हाथ पकड़े हुए उनकी पेशवाई में चल रहा था। राजा की प्रार्थना से उन्होंने वहीं चातुर्मास किया पर दुर्भायवश उनका वहीं स्वर्गवास हो गया।
आशिका नरेश भीमसिंह - श्री जिनपतिसूरिजी सं० १२२८ में आशिका नरेश के विशेष अनुरोध को ध्यान में रखकर आशिका पधारे। भूपति भीमसिंह के हाथ पूर्वोक्त दिल्ली के प्रवेश की भांति आशिका में प्रवेशोत्सव हुआ। सूरिजी ने स्थानीय दिगम्बराचार्य के साथ शास्त्रार्थ किया और उसमें सूरिजी की विजय हुई। इससे आशिका नरेश बहुत प्रसन्न होकर सूरिजी के प्रति श्रद्धालु बना। पुनः सं० १२३२ में मंदिर की प्रतिष्ठा करने हेतु सूरिजी आशिका पधरि ।
अजमेर का महाराजा पृथ्वीराज चौहान - श्री जिनपतिसूरिजी सं० १२३९ में अजमेर पधारे। राजसभा में चैत्यवासी उपकेशगच्छीय पं० पद्मप्रभ के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें सूरिजी की विजय हुई और पृथ्वीराज चौहान ने स्वयं उपाश्रय आकर जयपत्र आचार्य को भेंट किया।
अणहिल्लपुर ( पाटण) का राजा भीमदेव - सं० १२४४ में अणहिल्लपुर का कोट्याधिपति श्रावक अभयकुमार तीर्थयात्रा के हेतु संघ निकालने की इच्छा से महाराजाधिराज भीमदेव और प्रधान मंत्र जगदेव पड़िहार के पास गया और उनसे अर्ज कर स्वयं राजा के हाथ से लिखवा कर अजमेर भेजा । सूरिजी ने निमंत्रण पाकर अजमेरी संघ के साथ विहार कर दिया। तीर्थयात्रा के अनन्तर वापस लौटते हुए सूरिजी आशापल्ली पधारे।
लवणखेडा का राणा केल्हण - सं० १२५१ में राणा केल्हण के आग्रह से आचार्य
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