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उपस्थिति में जेसलमेर के पार्श्वनाथ मंदिर की १४६९ में प्रतिष्ठा हुई थी। प्रशस्तियों में इस मंदिर का नाम ही लक्ष्मणविहार प्राप्त होता है।
__ महारावल वैरीसिंह - जेसलमेर शिलालेख प्रशस्ति (खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह लेखाङ्क २८८) के अनुसार महारावल वैरीसिंह और त्र्यम्बकदास आदि आचार्य जिनभद्रसूरि के चरणों में नित्य प्रणाम करते थे।
___ बादशाह सिकन्दर लोदी - जिनहंससूरि ने संवत् १५५६ में इनको चमत्कार दिखाकर ५०० बन्दीजनों को कैद से छुड़वाया था और अमारी की घोषणा करवाई थी।
___ सम्राट अकबर - विक्रम सं० १६४८ में सम्राट अकबर के अनुरोध पर जिनचन्द्रसूरि लाहौर पधारे। उनकी धर्मदेशना अकबर नित्य सुनता था और उनको बड़े गुरु के नाम से पुकारता था। आचार्य के उपदेश से जैन तीर्थों और मंदिरों की रक्षा हेतु सम्राट से फरमान प्राप्त किया था। आषाढ़ शुक्ला नवमी से पूर्णिमा तक १२ सूबों में जीवों को अभयदान देने के लिए फरमान पत्र भी प्राप्त किए थे। काश्मीर प्रवास के समय सम्राट के अनुरोध पर आचार्य ने महिमसिंह को भी साथ भेजा था। १६४९ में बड़े महोत्सव के साथ आचार्य जिनचन्द्रसूरि को युगप्रधान, महिमसिंह को आचार्य पद और समयसुन्दर
और गुणविनय को वाचनाचार्य पद सम्राट ने अपने ही हाथों से दिया था। इस महोत्सव के प्रसंग पर मन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत ने १ करोड़ रूपये खर्च किए थे। मन्त्री कर्मचन्द्र, बीकानेर नरेश महाराज रायसिंह और सम्राट अकबर के पूर्ण प्रीतिपात्र थे। कर्मचन्द्र के सुकृत्यों का वर्णन महोपाध्याय जयसोम ने कर्मचन्द्र वंश प्रबन्ध में किया है।
सम्राट जहांगीर - युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि का भक्त था। सम्राट जहांगीर ने ही वाचनाचार्य गुणविनयोपाध्याय को कविराज पद से अलंकृत किया था।
नगरकोट के महाराजा - महोपाध्याय जयसागर जी के उपदेश से प्रतिबुद्ध हुए थे।
जेसलमेर का राजवंश - महारावल लक्षमणदेव से प्रारम्भ कर उनकी वंश परम्परा खरतरगच्छ, बेगड़गच्छ की परम भक्त रही है। हर प्रतिष्ठा आदि विशेष कार्यों में इस वंश के महारावल सम्मिलित होते थे और राज्योचित सहयोग प्रदान करते रहे।
बीकानेर का राजवंश - महाराजा रायसिंहजी और उनके वंशज खरतरगच्छ एवं आचार्यशाखा के आचार्यों को अत्यन्त सम्मान की दृष्टि से देखते थे। उनके पद-प्रतिष्ठादि अवसरों पर राजकीय निशान आदि भी प्रदान करते थे। युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिजी से लेकर जिनचारित्रसूरिजी तक इस वंश का सम्बन्ध घनिष्ठतर रहा।
जोधपुर का राजवंश - इस वंश के राजागण भी खरतरगच्छ के आचार्यों को परम आदरणीय मानकर उनके प्रत्येक कार्यों में भाग लेते थे। जिनमहेन्द्रसूरि का पदाभिषेक राजा मानसिंह ने ही किया था।
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