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किया। इस प्रयास में व या काचत् सफल भी हुए। जिनभद्रसूरि न प्रबल वेग से अनक स्थानों पर समृद्ध भण्डारों की स्थापना करते हुए शास्त्र संरक्षण के कार्य को प्रमुख प्रधानता प्रदान की ।
जिन भद्रसूरि की मान्यता थी - पहले ज्ञान है और बाद में आचरण । ज्ञान के बिना क्रिया भी सफल नहीं होती है। वह ज्ञान शास्त्रों से प्राप्त होता है और वे शास्त्र वर्तमान समय में पुस्तकों के आधार पर आश्रित हैं तथा वह पुस्तक लेखन/शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ करवा कर सद्गुरुओं को अध्ययनार्थ प्रदान करने से प्राप्त होता है ।
जिनवल्लभसूरि कृत धर्मशिक्षा का १८वाँ द्वार श्लोक ३८- ३९ को अपने संस्मरण में लेते हुए और अनुसरण करते हुए विचार किया:
ज्ञान समस्त सुखों का दाता है, तत्त्व ज्ञान सद्गुरुओं के अधिगम उपदेश से प्राप्त होता है। तत्त्व ज्ञान से शम की प्राप्ति होती है। शम की प्राप्ति से मानव वैर रहित हो जाता है। फलत: वह शत्रु रहित और द्वेषरहित हो जाता है, निर्भय हो जाता है, अतः हे भव्यजनो ! आप आदरपूर्वक श्रुतज्ञान/ शास्त्रों को लिखवाओ अर्थात् प्रतिलिपियाँ करवा करवा कर श्रुत भंडार को समृद्ध करो
प्राग् ज्ञानं तदनन्तरं किल दया वागार्हतीति स्फुटा, न ज्ञानेन बिना क्रियापि सफला प्रायो यतो दृश्यते । तत्स्यात् सम्प्रति पाठतः स च पुनः स्यात्पुस्तकाधारतस्तस्मात्पुस्तकलेखनेन मुनिषु ज्ञानं प्रदत्तं भवेत् ॥ १८ ॥ ज्ञानं सर्वसुखप्रदं च ददता साधुव्रजायाभवं, दत्तं येन ततो भवेदधिगमस्तत्त्वस्य तत्त्वाच्छमः । शान्तो वैरविवर्जितः स निररिर्निद्वेषिणो नो भयं, तस्माल्लेखयत श्रुतं भुवि जना! यूयं विधायादरम् ॥ १९॥
- जेसलमेर ताड़पत्रीय प्रति क्रमाङ्क ११९ की लेखन - प्रशस्ति यही कारण था कि जिनभद्रसूरि ने अपने उपदेशों के माध्यम से श्रद्धालु उपासकों के मानस को श्रुतभक्ति की ओर मोड़ दिया। उपासक भी सादर भक्ति एवं उल्लास के साथ शास्त्र - लेखन में जुड़ गये। फलतः आचार्यश्री को आशातीत सफलता प्राप्त हुई और उन्होने राजस्थान में ३ - जेसलमेर, जालोर, नागौर; गुजरात में ३ - पाटण, खम्भात, आशापली; मालवा में १ - मांडवगढ़ तथा देवगिर में कुल ८ स्थानों पर समृद्ध ज्ञान भंडार स्थापित किये।
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श्रीमज्जेसलमेरुदुर्ग नगरे जावालपुर्यां तथा श्रीमद् देवगिरौ तथा अहिपुरे श्रीपत्तने पत्तने । भाण्डागारमबीभरद् वरतरैर्नानाविधैः पुस्तकैः सः श्रीमज्जिनभद्रसूरि सुगुरुर्भाग्याद्भुतोऽभूद् भुवि ॥
प्राक्कथन
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