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आचार्य उद्योतनसूरि के पास शिष्यत्व ग्रहण किया। चैत्यवास के विरुद्ध उनके हृदय में लपलपाती ज्वालाएँ प्रबल रूप धारण करती रहीं किन्तु वे समय कि प्रतीक्षा करते रहे। एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता इस उक्ति को ध्यान में रखते हुए विद्वत् शिष्यवर्ग की खोज करते रहे । संयोग से समस्त शास्त्रों के धुरीण विद्वान् जिनेश्वर और बुद्धिसागर शिष्य रूप में उन्हें प्राप्त हुए। इनके अतिरिक्त भी कई उद्भट विद्वान उनके शिष्य बने।
प्रज्ञा-सम्पन्न शिष्य सम्पदा होने पर आचार्य वर्धमान ने अट्ठारह साधुओं के साथ चैत्यवास के गढ़ पाटन की ओर प्रस्थान किया। उस समय गुजरात की राजधानी अणहिलपुर पाटन पर दुर्लभराज चालुक्य का आधिपत्य था। महाराजा दुर्लभराज का राज्यकाल विक्रम संवत् १०६६ से १०७८ तक था। राज्यादेश के कारण आचार्य वर्धमान को निवास स्थान भी प्राप्त नहीं हुआ। वे नगर में प्रवेश भी न कर सके। भोजन/गोचरी का तो प्रश्न ही नहीं था। आचार्य जिनेश्वर ने अपने विचक्षण बुद्धि वैभव से राज-पुरोहित सोमेश्वर के यहाँ रहने को पड़साल/बरामदा प्राप्त की।
‘क्रियासम्पन्न साधु नगर में प्रवेश कर गये हैं' इस संवाद से व्यथित होकर वर्धमानसूरि आदि साधुओं पर अन्य राज्यों के गुप्तचर हैं' आदि आरोप भी लगे। सोमेश्वर राजपुरोहित के बीच में होने के कारण महाराजा दुर्लभराज की अध्यक्षता में शास्त्रार्थ का समय भी निर्णीत हुआ। पंचासरा पार्श्वनाथ मंदिर के प्रांगण में चैत्यवासी दुर्धर्ष आचार्यों के साथ शास्त्र-चर्चा हुई। साधुचर्या पर चर्चा आलम्बित होने के कारण वर्धमानसूरि के आदेश से जिनेश्वरसूरि ने नवीन कल्पित शास्त्रों का अपहार करते हुए भगवत प्रणीत शास्त्रों के उद्धरण प्रस्तुत किए। स्वाभाविक था कि इस शास्त्रार्थ में चैत्यवासी आचार्य पराजित होते, वही हुआ। आचार्य जिनेश्वर का पक्ष विजय प्राप्त कर सका। महाराज दुर्लभराज ने अपने निर्णय में यह कहा - जिनेश्वरसूरि का पक्ष खरा है, शास्त्रीय है।
वर्धमानसूरि और जिनेश्वरसूरि आदि ने महाराजा के मुख से उच्चारित विरुद को विरुद ही माना, अपने विशेषणों में सम्मिलित नहीं किया। स्वयं को चन्द्रकुलीय सुविहित ही ख्यापित करते रहे। जनता के मुख पर यह खरतर शब्द चढ़ गया था, वही धीमे-धीमे तीन शताब्दियों के आस-पास गच्छ के रूप में प्रसिद्ध हो गया। तब से आज तक यह खरतरगच्छ अविच्छिन्न परम्परा के रूप में चल रहा है। वर्तमान में इसका उपासक वर्ग विशाल पैमाने पर समस्त प्रदेशों में छाया हुआ है।
साहित्य-निर्माण इस विजय के उपरान्त किसी मन चले चैत्यवासी आचार्य ने वर्धमान आदि आचार्यों पर व्यंग कसते हुए निम्न शब्दों द्वारा करारी चोट की - हे आचार्य! इस विजय से आप फूलकर कुप्पा हो रहे हैं यह सत्य है। सुविहित साध्वाचार का डिंडिम घोष कर रहे हैं, पूर्वाचार्यों के साहित्य पर आप उछल कूद मचा रहे हैं, पर जरा तनिक सोचें तो सही, आपके इन सुविहित साधुओं द्वारा स्वार्जित/निर्मित साहित्य कहाँ हैं? आप लोग उच्छिष्ट भोजी हैं। कुछ नूतन निर्माण कर अपने
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