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रचनाएं भी की। आचार्य अभयदेव इतने से ही संतुष्ट नहीं हुए और एक नवीन चमत्कार भी पैदा किया। सेढी नदी के किनारे जयतिहुअण स्तोत्र के द्वारा स्तवना करते हुए भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति भी प्रकट की जो कि आज भी स्तम्भन पार्श्वनाथ तीर्थ के नाम से सर्वजन वन्द्य है।
__एक अन्य शिष्य अशोकचन्द्रसूरि ने उत्तराध्ययन सूत्र पर टीका लिखी थी किन्तु आज वह अप्राप्त है।
शास्त्र-विरुद्ध आचार को मान्यता देने वाले चैत्यवासियों के विरोध में जिनेश्वरसूरि ने जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान जो अलख जगायी थी वह भस्माच्छादित सी होने लगी। ऐसे नाजुक और विकट समय में जाके पैर न फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई के अनुसार चैत्यवास से उद्विग्न
और सुविहित पथ के लिए उत्कण्ठित सर्वविद्याविशारद आचार्य की परमावश्यकता थी। ऐसे समय में अनभ्र वृष्टि के समान कूर्चपुर गच्छीय आचार्य जिनेश्वर के शिष्य जिनवल्लभगणि आगमशास्त्रों का अध्ययन करने के लिए अभयदेवसूरि के सम्पर्क में आए। सम्पर्क में क्या आए वे उन्हीं के बन कर रह गए। चैत्यवास त्याग कर, आचार्य अभयदेव से उपसम्पदा प्राप्त कर प्रभावक आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। जिनवल्लभसूरि ने चैत्यवास का उन्मूलन करने के लिए आचार्य जिनेश्वर की अखण्ड ज्योति को सम्भाला और प्रबल वेग के साथ जन-समक्ष शास्त्रविहित आचार स्वरूप का प्रतिपादन करने लगे। कर्म-सिद्धान्त पर अभी तक नवीन निर्माण नहीं हुआ था अतः उन्होंने सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार और आगमिकवस्तुविचारसार, शुद्ध भोजन की गवेषणा के लिए पिण्डविशुद्धि, लक्षण शास्त्रियों के लिए प्रश्नोतरैकषष्टिशतक, निषिद्ध के प्रतिपादन के साथ शास्त्र-विहित मान्यताओं के लिए संघपट्टक तथा उपासकों के लिए पौषधविधि, द्वादशकुलक, धर्मशिक्षा, आत्मकथा के रूप में अष्टसप्तति आदि ग्रन्थों की रचना की।
__वाचक सुमतिगणि के शिष्य गुणचन्द्रगणि ने प्राकृत भाषा में महावीर चरित की रचना की और आचार्य बनने पर देवभद्राचार्य के नाम से पार्श्वनाथ चरित और कथारत्न कोष आदि का निर्माण किया। साथ ही प्रमाणप्रकाश के नाम से दर्शन ग्रन्थ भी लिखा।
माता अम्बिका देवी द्वारा प्रदत्त युगप्रधान पद विरुदधारक जिनदत्तसूरि ने अपभ्रंश भाषा में चर्चरी आदि ग्रन्थों एव प्रभाविक स्तोत्रों की रचना की। अनेक दिग्गज चैत्यवासी आचार्य चैत्यवास का परित्याग कर इनके शिष्य बने। इन्हीं के शिष्य जिनभद्रसूरि ने पंचवर्ग-परिहार-नाममालाकोष की रचना की।
___षट्त्रिंशद् वाद विजेता जिनपतिसूरि ने जिनेश्वरसूरि के ग्रन्थ पञ्चलिङ्गी पर और जिनवल्लभीय ग्रन्थ संघपट्टक पर विशाल टीका का निर्माण कर पाण्डित्य का अपूर्व कौशल दिखाया।
इन्ही के शिष्य-प्रशिष्यों में जिनपालोपाध्याय ने स्वोपज्ञ टीका सहित सनत्कुमार चक्रिचरित महाकाव्य का निर्माण किया और गुर्वावली/पट्टावली के रूप में वर्धमानसूरि के लेकर जिनेश्वरसूरि
प्राक्कथन
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