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आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य (1.20) में श्रुत के आठ पर्यायों का उल्लेख किया है - श्रुत, आप्तवचन, आगम, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन और जिनवचन । इनमें से 'श्रुत' शब्द के स्थान पर जैन परम्परा में शताब्दियों से आगम' शब्द का प्रचलन है, व्यापक हो गया है। आज भी तीर्थंकर-भाषित, गणधर-सूत्रित, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतधर, पूर्वधर, अङ्गधर, एवं गीतार्थ आचार्यों द्वारा विनिर्मित शास्त्र आगम' शब्द से ही से प्रचलित हैं।
___ समय-समय पर श्रुत/आगम शास्त्रों के कई भेद-प्रभेद प्राप्त होते हैं । यथा - १. अङ्ग अर्थात् अङ्ग-प्रविष्ट, और २. अङ्ग-बाह्य अर्थात् अनंगप्रविष्ट ।
१. अङ्ग-प्रविष्ट में द्वादशांगी का ग्रहण किया जाता है। इसके भी दो भेद हैं - १. गमिक और २. अगमिक। बारहवां अङ्ग दृष्टिवाद गमिक श्रुत है और आचारांग आदि ग्यारह अङ्ग अगमिक श्रुत हैं। गमिक श्रुत दृष्टिवाद इस समय अनुपलब्ध है।
२. अङ्ग-बाह्य अर्थात् अनंगप्रविष्ट भी दो प्रकार का है - १. आवश्यक और २. आवश्यक व्यतिरिक्त।
आवश्यक भी छः प्रकार है - सामायिक आदि।
आवश्यक-व्यतिरिक्त भी दो प्रकार का है – १. कालिक (निर्धारित समय में दिवस और रात्रि के प्रथम तथा अन्तिम प्रहर में पठनीय) और २. उत्कालिक (निर्धारित समय से भिन्न समय में पठनीय)।
कालिक श्रुत के अन्तर्गत नन्दीसूत्रकार और पाक्षिकसूत्रकार ने उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध आदि ३६ आगम सूत्रों के नाम दिये हैं।
उत्कालिक श्रुत के अन्तर्गत दशवैकालिक आदि २९ आगमों के नाम प्राप्त होते हैं। इस प्रकार समय के प्रवाह में आगमों की संख्या बढ़ते हुए ८४ तक पहुंच गई।
आगमों की मौखिक श्रुत-परम्परा का लेखन निषिद्ध होने के कारण, कालचक्र का प्रभाव, स्मरण शक्ति में न्यूनता और अनावृष्टि-अतिवृष्टि के कारण ज्ञानमन्दता से कुछ श्रुत विस्मृत हो गये, विलुप्त हो गये, अस्त-व्यस्त हो गये। इस श्रुतसागर को सुरक्षित रखने के लिए समय-समय पर तीन वाचनाएं हुईं। मूलपाठ सुरक्षित रखा गया। अन्तिम वाचना देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के समय हुई और इन आगमों को सुव्यवस्थित किया गया किन्तु विदेशी आक्रमणों द्वारा ग्रन्थ भण्डार जलाये जाने, भण्डारों की असुरक्षा, कीटों द्वारा भक्षण आदि अनेक कारणों से आगम ग्रन्थ विलुप्त होते गए। कुछ परम्परा आग्रह के कारण भी अमान्य हो गए। प्रक्षिप्तांश भी बढ़ते गये। फलतः देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की वाचना द्वारा स्वीकृत मूल स्वरूप की हस्तप्रतियाँ आज प्राप्त नहीं होती हैं।
उक्त आगमों में से वर्तमान काल में आगम रूप से जो शास्त्र उपलब्ध हैं और मान्य हैं उनका गीतार्थ आचार्यों ने पुन: वर्गीकरण किया - १. अङ्ग - ११; २. उपाङ्ग - १२; ३. प्रकीर्णक - १०;४.
प्राक्कथन
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