Book Title: Khartargaccha Sahitya Kosh
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 22
________________ |जीवट भरा आयोजन ॥ मङ्गलम्॥ वीतराग महावीर प्रभु के शासन में हुए हर गच्छ के आचार्य भगवन्तों ने अपनी-अपनी प्रज्ञा का पूर्ण उपयोग करते हुए वीरवाणी को विस्तार दिया है। कोई ऐसा विषय नहीं, जिस पर उन्होंने ग्रन्थ न रचा हो ! अध्यात्म से लेकर ज्योतिष, विज्ञान, मन्त्र-तन्त्र, आयुर्वेद... हर विषय पर उनकी लेखनी चली है। ग्रन्थ निर्माण के पीछे यश-प्राप्ति काम्य नहीं रहा है। अपितु परमात्मा की वाणी को सरल रूप देना ही उनकी मुख्य उद्देश्य रहा है। __इसलिए आचार्य भगवन्तों की रचनाओं में कल्पनाएँ नहीं मिलतीं, बल्कि अक्षर-अक्षर में परमात्मा महावीर के सिद्धान्त गंजते है। वर्तमान में चल रही गच्छ परम्पराओं में सबसे प्राचीन खरतरगच्छ की महान परम्परा में हुए आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं ने जिन ग्रन्थों और प्रकरणों का नव सर्जन किया है, यह कोश हमें उनके प्रखर पुरुषार्थ से परिचित कराता है। ___ यह पुरुषार्थ उस युग का है जिस युग में लेखन के उपकरणों, ताडपत्र, कागज आदि की उपलब्धि आसान नहीं थी, स्याही को घोटना पड़ता था, रोज शाम को सूखाकर दूसरे दिन पुन: जल प्रयोग से स्याही बनाकर लिखना होता था। कलम का निर्माण और उसके द्वारा लेखन अत्यन्त कष्ट साध्य होता था! ग्रन्थों/पोथियों का वजन अपनी पीठ पर उठाये विहार करना होता था! ऐसी विषम स्थिति में उन आचार्यों ने कितनी मेहनत की होगी! आज सुविधाओं से भरे जमाने में उस युग की कल्पना ही अचम्भे से हमारी आँखों को चौड़ा कर देती हैं। धन्य उन महापुरुषों को! जिन्होंने वीतराग वाणी के विश्लेषण, विस्तार में और उन्हें जन-जन तक पहुँचाने में अपना जीवन समर्पित किया। साहित्य कोश का यह प्रकाशन मूर्धन्य साहित्यकार महोपाध्याय श्री विनयसागरजी की उर्वर कल्पना व मेहनत की देन है। वे स्वयं साहित्यकार हैं इसलिए साहित्य के शाश्वत मूल्य से पूर्ण रूप से परिचित हैं। इस कोश के निर्माण में इनकी वर्षों की मेहनत लगी है। कितने ही भण्डार, कितनी ही हस्तप्रतियाँ इनकी आँखों व हाथों से गुजरी होंगी, तभी यह पूर्णरूप ले पाया है। इनकी जीवटता अनुमोदनीय है। आपने ही पहले मणिधारी अष्टम शताब्दी के स्मृति ग्रन्थ में प्रारम्भिक सूची प्रकाशित की थी। उस सूची को विस्तार देते हुए उसे कोश का रूप दिया गया है। ऐसे कोश का निर्माण गच्छों की दृष्टि से खरतरगच्छ का ही प्रथम प्रकाशित हो रहा है। यह प्रकाशन कई ग्रन्थों और प्रकरणों के कर्ता-नामों में किसी अभिनिवेश के कारण किए/कराए जा रहे परिवर्तन के सामने लाल बत्ती करता हुआ मूल नामों की सच्चाई का प्रकाश उपस्थित करेगा। मैं बधाई के साथ अभिनन्दन करता हूँ। मणिप्रभसागर (उपाध्याय मणिप्रभसागर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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