Book Title: Karmagrantha Part 6 Sapttika
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
( १७ )
भंगों के कहने की सूचनामात्र करके मोहनीय के भंग कहने की प्रतिज्ञा की गई है ।
दसवीं से लेकर तेईसवीं गाथा तक मोहनीयकर्म के और चौबीसवीं से लेकर बत्तीसवीं गाथा तक नामकर्म के बन्धादि स्थानों व उनके संवेध भंगों का विचार किया गया है । इसके अनन्तर तेतीसवीं से लेकर बावनवीं गाथा तक अवान्तर प्रकृतियों के उक्त संवेध भंगों को जीवसमासों और गुणस्थानों में घटित करके बताया गया है । त्रपनवीं गाथा में गति आदि मार्गणाओं के साथ सत् आदि आठ अनुयोगद्वारों में उन्हें घटित करने की सूचना दी गई है ।
इसके अनन्तर वर्ण्य विषय का क्रम बदलता है । चौवनवीं गाथा में उदय से उदीरणा के स्वामी की विशेषता को बतलाने के बाद पचपनवी गाथा में ४१ प्रकृतियाँ बतलाई हैं, जिनमें विशेषता है । पश्चात् छप्पन से उनसठवीं गाथा तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्ध प्रकृतियों की संख्या का संकेत किया है । इकसठवीं गाथा में तीर्थंकर नाम, देवायु और नरकायु इनका सत्त्व तीन-तीन गतियों में ही होता है, किन्तु इनके सिवाय शेष प्रकृतियों की सत्ता सब गतियों में पाई जाती है । इसके बाद की दो गाथाओं में अनन्तानुबन्धी और दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों के उपशमन और क्षपण के स्वामी का निर्देशन करके चौंसठवीं गाथा में क्रोधादि के क्षपण के विशेष नियम की सूचना दी है । इसके बाद पैंसठ से लेकर उनहत्तरवीं गाथा तक चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान में प्रकृतियों के वेदन एवं उदय सम्बन्धी विवेचन करने के अनन्तर सत्तरवीं गाथा में सिद्धों के सुख का वर्णन किया है ।
इस प्रकार ग्रन्थ के वर्ण्य विषय का कथन हो जाने के पश्चात् दो गाथाओं में उपसंहार और लघुता प्रकट करते हुए ग्रन्थ समाप्त किया गया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org