Book Title: Karm Vignan Part 04
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ प्रकाशकीय बोल धर्म और कर्म अध्यात्म जगत के ये दो अद्भुत शब्द हैं, जिन पर चैतन्य जगत की समस्त क्रिया / प्रतिक्रिया आधारित है। सामान्यतः धर्म शब्द मनुष्य के मोक्ष / मुक्ति का प्रतीक है और कर्म शब्द बंधन का । बंधन और मुक्ति का ही यह समस्त खेल है। प्राणी/ कर्मबद्ध आत्मा प्रवृत्ति करता है, कर्म में प्रवृत्त होता है, सुख-दुःख का अनुभव करता है, कर्म से मुक्त होने के लिए फिर धर्म का आचरण करता है, मुक्ति की ओर कदम बढ़ाता है। " कर्मवाद" का विषय बहुत गहन गंभीर है, तथापि कर्म - बन्धन से मुक्त होने के लिए इसे जानना भी परम आवश्यक है। कर्म सिद्धान्त को समझे बिना धर्म को या मुक्ति मार्ग को नहीं समझा जा सकता । हमें परम प्रसन्नता है कि जैन जगत के महान मनीषी, चिन्तक / लेखक आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज ने "कर्म-विज्ञान" नाम से यह विशाल ग्रंथ लिखकर अध्यात्मवादी जनता के लिए महान उपकार किया है। यह विराट् ग्रंथ लगभग ३००० पृष्ठ का होने से हमने पांच भागों में विभक्त किया है। प्रथम भाग में कर्मवाद पर दार्शनिक एवं वैज्ञानिक चर्चा है तथा दूसरे भाग में पुण्य-पाप पर विस्तृत विवेचन है। तृतीय भाग में आनव एवं संवर पर तर्क पुरस्सर विवेचन है। पहले हमने तीन भाग में ही कर्म विज्ञान ग्रंथ प्रकाशित करने की योजना बनाई थी। परन्तु ज्यों ज्यों आचार्यश्री द्वारा इनकी सामग्री प्राप्त होती गई त्यों-त्यों लगा कि इसकी पूर्णता चार भाग में भी नहीं, संभवतः पांच भाग में हो जाय। इस भाग में कर्म प्रकृतियों का वर्णन है। अभी कर्म मुक्ति की प्रक्रिया निर्जरा और सम्पूर्ण कर्म मुक्त स्थिति मोक्ष का विवेचन बाकी है। संभवतः वह पंचम भाग में पूर्ण हो जायेगा। कर्म विज्ञान के द्वितीय और तृतीय भाग के प्रकाशन में आर्थिक अनुदान उदारमना डा. चम्पालाल जी देसरड़ा का मिला, उसी तरह इस प्रकाशन में भी दानवीर डा. चम्पालाल जी देसरड़ा, औरंगाबाद का अपूर्व योगदान मिला है जो उनकी साहित्यिक अभिरुचि तथा आचार्य श्री और उपाध्याय श्री के प्रति अपार आस्था की द्योतक है। ऐसे तेजस्वी धर्मनिष्ठ युवक सुश्रावक पर हमें सात्विक गर्व है। हम उनके आभारी हैं। साथ ही साहित्यसेवी श्रीमान् श्रीचन्द सुराना "सरस" ने बड़ी तत्परता के साथ सुन्दर मुद्रण व साज-सज्जा युक्त प्रकाशन कर समय पर प्रस्तुत किया, हम उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं। आशा है, पाठक इस ग्रन्थ के स्वाध्याय से अधिकाधिक लाभान्वित होंगे। चुन्नीलाल धर्मावत कोषाध्यक्ष श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय Jain Education International (३) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 558