________________
सबने अपने पोथी-पन्ने समेटे और अपनी-अपनी कुटिया की ओर चल दिए। जयमणि भी चले, ज्यूं ही वो अपनी कुटिया के नजदीक पहुंचे तो उन्हें एक नारी के रोने की आवाज सुनाई दी। जयमणि उस ओर बढ़े, देखा-एक नवयुवती, सोलह श्रृंगार सजी हुई, रो रही है। पूछा-बेटी! क्या बात ? तुम क्यों रो रही हो ? उसने कहा धर्म पिता! मैं अपने पति के साथ पीहर से ससुराल जा रही थी, मुझे प्यास लगी तो वो पानी लेने चल दिए। तब के गए, अभी तक नहीं लौटे, अब बताओ मैं कहाँ जाऊँ ?
जयमणि ने कहा-पुत्री! घबराओ मत, मेरे साथ चलो। अपनी कुटिया में उस युवती को ले आए, खाने को कुछ फल दिए, पीने को पानी दिया, कहा- बेटी तुम द्वार का सांकल लगा कर अंदर आराम करो, मैं बाहर बैठ कर जप करता हूँ और सुनो अब अंधेरा होने लगा है, अंधेरा पाप का साथी है। यहाँ रात को विचारों के राक्षस बहुत आते हैं। अगर कोई मेरा नाम लेकर भी द्वार खटखटाए तो खोलना मत! अच्छा धर्म पिता। लड़की ने द्वार बंद कर लिया।
बाहर जयमणि बैठे माला फेर रहें हैं, माला का मनका हाथ में घूम रहा है मन का मनका कहीं और ही घूम गया है। अरे! इतनी सुंदर लड़की तेरे चुंगल में फंसी हुई है
और तूं ये सुनहरी मौका गंवा रहा है ? चल, बहती गंगा में हाथ धो ले। उठे, चले पर अंदर से आवाज आई-अरे नीच! तूं इतना गिर गया ? जिसे बेटी बनाया उसके प्रति ही बुरे ख्याल ला रहा है मन में ? नहीं, वापिस आकर बैठ गए पर थोड़ी देर बाद फिर मन ने अपना काम शुरू किया और आत्मा की आवाज का गला घोंट कर जयमणि चल दिए।
A
26