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कुछ सुन चुके, अब तो हमें प्रैक्टिकल चाहिए।
हां, बात तो तुम्हारी बिल्कुल ठीक है। मैं पूरी तरह सहमत हूं तुम्हारी सोच से, पर अभी तुम्हारी सोच में थोड़ी सी कमी है, थोड़ा सा अधूरापन है। तुम कहते हो- इस सुख को छोड़ने की बात और उस सुख को पाने की बात।
लेकिन सुख का तो यहां सवाल ही नहीं है। क्यूंकि जहां सुख होगा, वहां कहीं न कहीं दुःख भी होगा। प्रकाश का अर्थ ही ये है कि - कभी न कभी अंधकार रहा होगा। तो मैं ना इस सुख को पाने की बात करता हूं, ना उस सुख को पाने की। मैं बात करता हूं आनंद की क्यूंकि इसका उल्टा शब्द ढूंढ पाना बड़ा मुश्किल है।
और जब आनंद की बात होती है, जब उसकी प्राप्ति का उपाय हमारे हाथ लग जाता है तो इस संसार के सुखों को छोड़ना नहीं पड़ता बल्कि वे स्वयं ही छूट ही जाते हैं। इसमें बड़ा फर्क है, थोड़ा समझ लेना - जैसे एक आदमी के हाथ में कांच के कुछ टुकड़े हैं, वो चला जा रहा है, देखता क्या है-सड़क के किनारे हीरों का ढेर पड़ा है, अगर वो समझदार होगा तो क्या करेगा ?तुम सोच सकते हो ना ?वो कांच के टुकड़ों को छोड़ेगा नहीं, बल्कि वो उससे छूट ही जाएंगे और उनके छूटने में उस व्यक्ति को कोई दुःख भी
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