________________
को मैं अपना गुरू मान लूंगा।
सब विद्वान एक- दूसरे का मुंह ताकने लगे। आखिर महर्षि अष्टावक्र ने ये चुनौती स्वीकार कर ली। राजा का एक पैर रकाब पर है, दूसरा पांव उठाकर ज्यूं ही घोड़े की काठी पर बैठने लगा, महर्षि अष्टावक्र ने कहा- 'मन दो।' राजा घोड़े से नीचे उतर आया। पूछा- महाराज ! आपने क्या कहा था, मेरी समझ नहीं आया। अष्टावक्र ने कहा- भाई चाहे समझ आया या नहीं आया, उसमें मेरा क्या कसूर? मैंने तो अपना काम पूरा कर दिया, तुम्हें आत्म ज्ञान की राह बता दी। हार कर राजा ने कहा- ठीक है महाराज ! मैं आपको 'गुरू' रूप में स्वीकार करता हूँ, अब तो बता दो ! महर्षि
अष्टावक्र ने कहा- राजन ! मैंने कहा था- मन दो यानि जिस शिष्य ने अपना मन गुरू को समर्पित कर दिया तो उसके जो अहंकार की, अभिमान की दीवार है, वो टूट जाएगी और आत्म ज्ञान उसके भीतर स्वतः प्रकट हो जाएगा। तन समर्पित करने वाले शिष्य तो बहुत हैं लेकिन आज आवश्यकता है- एकलव्य, आरूणी, गौतम, आनंद, बाला और मर्दाना की तरह गुरू के प्रति अपना मन समर्पित करने वाले शिष्यों की।
बस आज इतना ही। शेष फिर.....
ZAHED