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पर आप भी हंसे ? बस यही सोच कर मुझे हंसी आ गई। महर्षि अष्टावक्र ने कहा- अब मेरी बात भी सुनो जरा
'समझ करके मैं आया था, सभा है समझदारों की। मगर गलती मेरी निकली, ये महफिल है चमारों की।।'
राजन ! मैं तो ये सोच कर आया था कि- राजा जनक ने गुरू बनाना है, बड़े-बड़े विद्वान आए होंगे, मुझे भी उनके दर्शन हो जाएंगे पर यहाँ देखा तो वही बात 'ऊँची दुकान, फीके पकवान' समझदार तो दूर, यहाँ तो सबके सब चमार भरे पड़े हैं।
वहाँ जितने भी पण्डित-पुरोहित थे वो सब बौखला गए कि इसकी इतनी हिम्मत ? हमें चमार कहता है ? महर्षि अष्टावक्र ने कहा- देखो ! गर्मी से नहीं थोड़ा नरमी से काम लो। सीधी सी बात है जो सोने की परख करे वो सुनार और जो चाम की परख कर वो ..... चमार। आपने मेरे शरीर को देखा, मेरे ज्ञान को नहीं जाना। ज्ञान का संबंध शरीर से नहीं आत्मा से होता है। सब निरुत्तर हो गए। सभा में सन्नाटा छा गया।
सभा के सन्नाटे को तोड़ते हुए राजा जनक ने कहा- जैसा कि आप सबको पता है, मैंने गुरू बनाना हैं। पर मेरी एक शर्त है। मेरा एक पैर घोड़े की रकाब पर होगा और दूसरा पाँव उठाकर ज्यूं ही मैं घोड़े की काठी पर सवार होऊं, इतने कम समय में जो मुझे आत्म ज्ञान की राह बता दे, उसी