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होता है। इस मन को काबू करना है ना ? तो इसे उल्टा कर दो। 'मन' का क्या बन जाएगा ? 'नम', बस सद्गुरू के चरणों में नम जाओ, भर जाओगे, सब कुछ पा जाओगे। ___“मिटा दे अपनी हस्ती को, गर कुछ मर्तबा चाहे। कि दाना खाक में मिलकर-गुले गुलजार होता है।।"
- आप कहेंगे- महाराज ! हम तो मंदिर क्या, मस्जिद क्या, गुरुद्वारे-चर्च, हर जगह सर झुकाते हैं। हां, आप सर झुकाते हैं, पर केवल 'सर' ही झुकाते हैं, दिल नहीं झुकाते। जिस दिन दिल भी झुक गया फिर
इधर मंदिर, उधर मस्जिद, इधर गुरुघर, उधर गिरजा। इधर गिर जा या उधर गिर जा, है तेरी मर्जी, जिधर मर्जी गिर जा।।
राजा जनक ने उद्घोषणा करवाई कि- मैंने गुरु बनाना है और आप जानते हो दुनियाँ में आज हर कोई ही गुरू बनना चाहता है। पर हम भूल जाते हैं- बेटा बने बिना कोई बाप नहीं बन सकता और चेला बने बिना कोई गुरू भी नहीं बन सकता। राजा जनक ने जब उद्घोषणा करवाई तो निश्चित तिथि पर बड़े-बड़े विद्वान, पण्डित, पुरोहित, ऋषि-महर्षि पहुँच गए, दरबार ठसाठस भर गया।
उधर महर्षि अष्टावक्र, जिनके जन्म से ही आठों अंग टेढ़े-मेढ़े थे। उन्होंने भी सुना तो अपनी माता से कहने
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