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दरबार में जाऊंगा। माँ ने कहा- बेटा ये मुंह और मसूर की दाल ? तूं अपने शरीर को तो देख ! तूं क्या बनेगा राजा जनक का गुरू ? वहाँ तो बड़े-बड़े महारथी पहुँचे हुए हैं।
पर अष्टावक्र ने जब ज्यादा ही जिद्द की तो आप जानते हैं दुनियाँ में बाल हठ प्रसिद्ध है। बड़े-बड़ों को उसके आगे झुकना पड़ जाता है। फिर वो तो बेचारी माँ थी। उसे वो सब कुछ करना पड़ा, जो बेटे ने कहा था। आखिर महर्षि अष्टावक्र तैयार होकर गिरते-पड़ते किसी तरह राजा जनक के दरबार में पहुँच गए।
जब विद्वानों ने उन्हें देखा तो सबके सब हँसने लगे-अरे देखो ! ये भी राजा जनक का गुरू बनने आया है। महर्षि अष्टावक्र विचार करते हैं - नहले को दहला जीतता है, चुप रहने से काम नहीं चलेगा, उन्होंने भी एक ऐसा जोरदार ठहाका मारा कि- सारा दरबार गूंज उठा। और राजा जनक को भी हंसी आ गई।
महर्षि अष्टावक्र ने प्रश्न किया- राजन ! आप क्यूं हंसे ? राजा ने प्रतिप्रश्न कर दिया कि - महर्षि आप क्यूं हंसे ? अष्टावक्र ने कहा- राजन ! प्रश्न पहले मैंने किया है। राजा जनक ने कहा- महाराज ! क्षमा करना, सत्य कड़वा होता है। मैं इसलिए हंसा, मैंने सोचा- 'सूई बोले तो बोले पर छलनी भी बोले' (जिसके सिर में सौ छेद) यानि ये विद्वान आपके टेढ़े-मेढ़े शरीर को देखकर हंसे सो तो ठीक,
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