Book Title: Jodhpur Hastlikhit Granthoka Suchipatra Vol 01
Author(s): Seva Mandir Ravti
Publisher: Seva Mandir Ravti

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Page 13
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुजराती भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूप में उभरी है अत: उस प्रभाव में आकर प्रादेशिक व्यामोह के कारण 13वीं से 18वीं इन 5-6 शताब्दियों में रचे गये ग्रन्थों की भाषा को कई लोग तो गुजराती या प्राचीन गुजराती कहते हैं और कई लोग राजस्थानी कहते हैं। उदाहरण स्वरूप अहमदाबाद (गुजरात) से छपे सूचीपत्रों में श्री समय सुन्दर जी के ग्रंथों की भाषा को स्व. आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी ने गुजराती बताई है, जबकि जोधपुर (राजस्थान) से छपे सूनी पत्रों में उन्हीं ग्रन्थों की भाषा स्व. पद्म श्री मुनि जिनविजयजी ने राजस्थानी बताई है। इस समग्र भु-भाग में विचरण करने वाले होने के कारण जैन साधुनों द्वारा रचित जैन साहित्य में तो यह भाषा एक्यता व साम्य इतना अधिक है कि भाषा भेद की कल्पना ही हास्यास्पद लगती है। ग्रन्थकर्ता ने स्वयं की बोली में रचना की, उस बोनी को पराई संज्ञा देकर अन्याय नहीं करना चाहिये, अत: इस भाषा विवाद में न पड़कर हमने मध्यम मार्ग का अनुसरण करना ही श्रेयस्कर समझा है और कुवलयमाला नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ में सुझाये गये 'मारु गुर्जर' नाम से इस भाषा को बताया है जिसमें 19वीं शताब्दी से पूर्व की लगभग 5-6 शताब्दियों की इस भु-भाग की बोलचाल किंवा साहित्यिक भाषा का समावेश हो गया है। इस प्रकार उपरोक्त सात स्तम्भों में ग्रंथ संबधी जानकारी के संकेतों का स्पष्टीकरण के बाद अब उन स्तम्भों का विवेचन किया जाता है जो मुख्यतः प्रस्तुत प्रति से ही सम्बन्धित हैं। स्तम्भ 8- पन्नों की संख्या इस स्तम्भ में प्रति के कूल पन्नों की शुद्ध संख्या जो है वह लिख दी गई है जिसको द्विगुणित करने से पृष्ठों की संख्या आ जाती है । यथा सं नव पन्नों को गिनकर सही संख्या लिखी गई है और बीच में जो पन्ने कम हैं अथवा अतिरिक्त हैं उन क्रमांकों की टिप्पणी दे दी गई है। अधूरी या अपूर्ण तथा कहीं-कहीं अटक प्रति के भी पन्नों के क्रमांक नो उपनब्ध है अथवा कम है वीगतवार लिख दिये हैं। जहां एक से अधिक प्रतियों की प्रविष्टि एक साथ की गई है वहा प्रत्येक प्रति के पन्नों की संख्या अलग-प्रलग लिखी गई है जिनका क्रम विभागीय क्रमांकानुसार है. ऐसा समझ लेना चाहिये। स्तम्भ 8A- नाप: इस स्तम्भ में प्रति के बारे में चार प्रकार से सूचना दी गई है। पहिली संख्या प्रति को लम्बाई और दूसरी संख्या प्रति की चौड़ाई दर्शाती है जो दोनों सेन्टीमीटरों में है। तीसरी संख्या प्रतिपृष्ठ (न कि प्रति पन्ने में) कितनी पक्तियां है, यह बताती है और चौथी संख्या प्रति पंक्ति औसतन कितने अक्षर हैं. यह दिखाती है। चारों संख्यात्रों को इसी क्रम से लिखा है और उन्हें अलग-2 करने हेतु सुविधा के लिये बीच में 'x' निशान लगा दिया है। जहां ग्रन्थ केवल यन्त्र तालिका स्वरूप ही है वहां लकीरों व अक्षरों को संख्या नहीं दी है। तथा जहां प्रति पंचपाठी (अर्थात् बीच में मून ग्रंथ व उसके चारों ओर वत्ति प्रादि लिखी हुई) या टब्बार्थ सहित है यहां पंक्तियों व अक्षरों की संख्या मूल को ही दी है। जहां एक से अधिक प्रतियों की प्रविष्टि एक साथ में की गई है वहाँ केवल प्रतियों की लम्बाई चौड़ाई ही दी है और वे भी जब प्रति प्रति भिन्न है तो लम्बाई व चौड़ाई दोनों की लघुतम व दीर्घतम दो-दो संख्यायें लिख दी गई है। दृष्टांत:-भाग 3 (प्रा) भक्तामर स्तोत्र 5 प्रतियों की प्रविष्टि के सामने 24 से 27x12 से 13 लिखने का तात्पर्य यह है कि इन पाचों प्रतियों की लम्बाई भिन्न-भिन्न हैं जो नीचे में 24 और ऊचे में 27 सेन्टीमीटर है और इसी प्रकार चौड़ाई भी भिन्न-2 है जो नीचे में 12 और ऊचे में 13 सेन्टीमीटर है। चूकि सेन्टीमीटर भी कोई बहत विस्तार वाली दूरी नहीं है अतः हमने मीलीमीटरों में जाना श्रेयस्कर नहीं समझा है - आधे से अधिक को पूरा सेन्टीमीटर गिन लिया है और आधे से कम को छोड़ दिया है। स्तम्भ 9- परिमाण इस स्तम्भ में भी सूचना दो दृष्टिकोणों में दी गई है For Private and Personal Use Only

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