Book Title: Jinraj Bhakti Adarsh
Author(s): Danmal Shankardan Nahta
Publisher: Danmal Shankardan Nahta

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Page 42
________________ ( ३३ ) किया है कहांतक और करना चाहिये इत्यादि विचारों से आत्माको उन्नत बनावे | अब प्रभुको संवोधित कर आत्माको अपनी पतित अवस्थाका ध्यान इस प्रकार कराना चाहिये कि हे प्रभो आपने धन, कुटम्बादि का त्याग कर दिक्षा ली, शरीर के मोहका भी त्याग किया यह आपको त्याग भाव मुझे बहुत रुचता हैं कभी मैं भी ऐसा त्याग करूंगा तभी धन्य होऊंगा । निश्चय दशामें आप और मुझमें कोई भिन्नता नहीं है तथापि वर्तमान व्यवहार में, आप शान्त है मैं कोधी हूं, आप त्यागी, मैं भोगी, आप वीतराग, मैं रागी, आप निर्ममत्वी, मैं ममत्वधारण करनेवाला, आप निज गुण भोगी, मैं पुदगल विषयासक्त, आप सिद्ध, मैं संसारी, आप निष्कर्म, मैं कर्मों से आवेष्ठित, आप अनेक गुण भंडार मैं अनेक दोषोंका सागर, आप परमात्मा, मैं वहिरात्मा आदि अनेक भिन्नताए हो गई है तथापि आपके परमपावन दर्शन से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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