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( १०५ ) समझना चाहिये। क्योंकि वहां यह हेतु है कि चैत्यवंदन के प्रान्तमें कायोत्सर्ग करना पड़ता है उसी के सम्बन्ध में बताया गया है। यही हेतु व निमित्त भी सामान्य चैत्यवंदन के सम्बन्धमें भी समझना चाहिये।
(३१) चैत्यवंदन के प्रान्तमें जो एक नवकार का काऊसग्ग किया जाता है वह खूब शान्ति एवं स्थिरता से करना चाहिये। यदि एक नवकार का चिन्तवन यथार्थ रूप हो तो इतने ही समयमें प्राणी अनेक कर्मोका क्षय कर देता है।
(३२) चैत्यवंदन में अधिकांश में तो योग मुद्रा हो रखनी पड़ती है। 'जयवीयराय' तथा 'दोजाबंति' कहते समय मुक्तासुक्ति मुद्रा रखनी चाहिये तथा 'जयवीयराय' कह कर खड़े होनेके पश्चात पैरों आश्री तो जिनमुद्रा तथा १ दोनों हाथोंकी दशों आंगुलियोंको मांहो माहे अन्तरित कर
दोनों हाथोंको जोड़ पेट पर कोणी (अकुणी) को रखना। २ दोनों हाथों को बराबर रख ललाट के आगे रखना। ३ पैरों की अङ्गलियों को जगह ४ आंगुल की दूरी पैर की पीछे की ओर कुछ उससे कम आंतरे सह पैरोंको रख कायोत्सर्ग करना। (देखो देववंदन भाष्य पृ० २७)
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