Book Title: Jinraj Bhakti Adarsh
Author(s): Danmal Shankardan Nahta
Publisher: Danmal Shankardan Nahta

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Page 106
________________ मुनिपन ये दो भेद हैं। प्रभुजीको स्नान कराते एबं पजन करते उनकी बाल्यावस्था तथा राज्य अवस्थाका चिन्तवन करना चोहिये। चामरादि प्रतिहार्य संयुक्त देखकर उनकी केवली अवस्था का चिन्तवन करना चाहिये एवं पल्यंकासनमें व कायोत्सर्ग मुद्रामें स्थित देखकर सिद्धावस्थाका चिन्तवन करना चाहिये अथवा इन्हीं तीन प्रसंगों में पिंडस्थ, पदस्थ और रूप रहित इन तीन अवस्थाओंका चिन्तवन करना चाहिये । पिंडस्थ अर्थात छद्मावस्था, पदस्थ अर्थात केवली अवस्था एवं रूप रहित अर्थात सिद्धावस्था, यों समझना चाहिये । कहीं २ रूपस्थ और रूपातीतको लेकर चार अवस्थायें भी मानी गई हैं। भगवान की सेवा भक्ति करते समय मूर्तिकी उन्हीं अवस्थाओंको स्मरण करते हुए एवं मूर्ति उन्हीं अवस्थाओंमें है, इसको लक्ष्यमें रखकर सेवा भक्ति करनी चाहिये। इसीसे उन २ अवस्थाओंके योग्य भक्तिकी गई, यह समझा जा सकता है। www.jainelibrary.org For Personal and Private Use Only Jain Educationa International

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