Book Title: Jinabhashita 2006 04 05 06 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ कुंडलपुर के बड़े बाबा और छोटे बाबा | था। मुनि श्री समतासागर जी म.प्र. के दमोह जिले से लगभग 35 किमी दूर । झर झर बहता झरना पटेरा ग्राम के निकट कुण्डलाकार पहाड़ी में अवस्थित सिद्धक्षेत्र कहता चल चल चलना कुण्डलपुर अपनी प्राचीनता, पवित्रता और अतिशयता के उस सत्ता से मिलना लिए प्रसिद्ध है। दिगम्बर जैनमंदिरों की मनोज्ञता, सुरम्य पुनि पुनि पड़े न चलना पर्वतमाला एवं अंतिम केवली श्रीधरस्वामी की मुक्तिस्थली पुराने जीर्णशीर्ण छोटे मन्दिर से बड़े बाबा को नए होने से इस क्षेत्र की ख्याति दूर-दूर तक है। इस क्षेत्र के 64 | विशाल मन्दिर में स्थानांतरित करने की आवश्यकता विभिन्न जिनमंदिरों में सबसे प्राचीन मंदिर प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ | पहलुओं से लगभग स्पष्ट हो चुकी है। सन् 2001 फरवरी भगवान का है। इन्हें ही बडे बाबा के नाम से जाना जाता है। माह में सम्पन्न हए पंचकल्याणक, गजरथ और महामस्तकापद्मासन मुद्रा में यह प्रतिमा 15 फीट ऊँची और 11 फीट | भिषेक महोत्सव में देशप्रदेश के जन-प्रतिनिधि, समाज के चौड़ी है। बड़े बाबा का मंदिर लगभग ईसा की छठी सदी में | मूर्धन्य विद्वान्, प्रसिद्ध उद्योगपति एवं लाखों श्रद्धालु श्रावकों पहली बार बना। प्रतिमा के बारे में अनुमान है कि लगभग | ने मंदिर-नवनिर्माण पर अपना समर्थन और सहयोग दिया 1500 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। मन्दिर की दीवारें बनती और | मिटती रहीं, किंतु बड़े बाबा आज भी यथावत् बने हुए हैं। 'नई दुनिया' के स्थानीय संपादक, पत्रकार मन्दिर की बाह्य दीवारें ही नहीं सम्हालना हैं, बल्कि अंदर | | ओमप्रकाश जी ने दि. 28/2/06 को 'कुण्डलपुर का करिश्मा' स्थित प्रभु की प्रतिमा का संरक्षण ही असली पुरातत्त्व की | | शीर्षक से लिखे लेख में पुरातत्त्व की खामियों और श्रद्धालुओं रक्षा है। सो, समय समय पर प्रतिमा की सुरक्षा के लिए | | की मजबूरियों के जो बिन्दु उजागर किये, वे वास्तव में मंदिर का जीर्णोद्धार कार्य होता रहा। बड़े बाबा की कृपा से चिन्तनीय हैं। यह एकदम कड़वा सच है, जिसे स्वीकारना अपना खोया हआ राज्य पन: पाने पर ईसवी सन 1657 में | ही होगा कि पुरातत्त्व की वस्तुओं में और धर्मश्रद्धालुओं के पन्ना नरेश महाराजा छत्रसाल ने इस मंदिर के जीर्णोद्धार में पूजास्थलों में बड़ा अन्तर है। पुरातत्त्व-संरक्षित किसी महल सहयोग देकर प्रतिष्ठाकार्य सम्पन्न कराया। स्वयं कार्यक्रम या किले की दीवार गिर जाए, तो हिंदुस्तान का नागरिक में सम्मिलित होकर मंदिर के लिए सोने-चाँदी के चँवर, छत्र आँसू नहीं बहाएगा, उपवास नहीं करेगा, जबकि किसी भी और पूजा के बर्तन भेंट स्वरूप दिए। इसी समय कुण्डलपुर धर्मावलंबियों के मंदिर, मूर्ति या पूजास्थलों में कुछ भी क्षति के मनोहारी तालाब 'वर्धमान सागर' तथा सीढ़ियों का होती है, तो उसकी सारी पीड़ा वह श्रद्धालु समाज भोगता है। निर्माण भी हुआ। 17 जनवरी 06 मंगलवार के शुभ दिन अपराह्न ___ सन् 1976 की बात । कटनी में ग्रीष्मकालीन प्रवास बेला में बड़े बाबा जैसे ही नए मंदिर के भव्य सिंहासन पर के बाद गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी संघसहित प्रथम विराजमान हुए, आकाशमण्डल सहित समूचा कुण्डलपुर बार कुण्डलपुरजी क्षेत्र के दर्शनार्थ पधारे। क्षेत्र की वंदना तीर्थ जय-जयकार के नारों से गूंज उठा। भावभीने इस की, बड़े बाबा के दर्शन किए और फिर वहाँ पर चातुर्मास वातावरण में गुरुवर आचार्यश्री की आँखों से खुशी के आँसू स्थापित कर लिया। आचार्यश्री के चुम्बकीय व्यक्तित्व के बह निकले। मूर्ति उठने के पहले चेहरे पर झलकती चिन्ता बारे में कहा जाता है कि जो उन्हें एक बार देखता है, वह और मूर्ति उठने के बाद प्रसन्न आत्म-विश्वास से भरे उन्हीं का हो जाता है। किन्तु यहाँ कुछ ऐसा हुआ कि बड़े आभामण्डल द्वारा आचार्यश्री ने बिना कहे ही सब कुछ कह बाबा के दर्शन कर आचार्यश्री उन्हीं के हो गये। क्षेत्र की दिया। कार्य की सानन्द सम्पन्नता के बाद शिष्य-श्रद्धालओं प्राकृतिक छटा में गहन चिन्तनमनन और स्वाध्याय-साधना ने पूछ ही लिया गुरुवर से कि "आचार्यश्री ! जब मूर्ति उठ चलती रही। वर्षाकाल में पर्वतराज से वर्धमानसागर की रही थी, तो आप इतने सीरियस से क्यों थे?" आचार्यश्री का ओर बहते हुए झरनों को आचार्य श्री ने कुछ इस तरह उत्तर था - "क्या बताएँ सबकी नजरें मुझ पर लगी थीं और निरूपित किया - मेरी नजरें बड़े बाबा पर लगी थीं।" पुनः पूछ लिया कि - अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित /5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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